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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान
इस प्रकार सर्वप्रथम आचार्य पद के योग्य मुनि के लक्षण बताए गए हैं। अब आचार्य पद के अयोग्य मुनि के लक्षण इस प्रकार से हैं
आचारदिनकर (भाग
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पंचाचार से रहित, क्रूर स्वभाव वाला, कटुभाषी, कुरूप, विकलांग, अनार्य देश में उत्पन्न, जाति एवं कुल से हीन, अभिमानी, प्रशासन करने में अकुशल, विकथा करने वाला, ईर्ष्यालु, सांसारिक विषय भोगों में अनुरक्त, लोगों से द्वेष करने वाला, कायर, निर्गुण, अपरिपक्व, प्रकृति से दुष्ट आदि दोषों से युक्त साधु आचार्य पद के योग्य नहीं होता है । आगम में भी कहा गया है - "हाथ, पांव, कान, नाक, होठरहित, वामन, वडभ, कुब्ज, पंगु, लूला और काणा ये व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य हैं। दीक्षा लेने के बाद भी यदि कोई विकलांग हो जाता है, तो उसे आचार्य पद नहीं दिया जाता है । यदि आचार्य विकलांग हो जाए, तो उनके स्थान पर योग्य शिष्य को आचार्य पद देकर विकलांग आचार्य को चुराए हुए महिष की तरह गुप्त स्थान में रखा जाता है ।"
उपर्युक्त वर्णित लक्षण आचार्य पद के अयोग्य व्यक्ति के लक्षण हैं। कहा भी गया है - " क्षीण बल वाला, वडभ, कूबड़ा मुनि आचार्य पद के योग्य नहीं होता है । "
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पूर्व में बताए गए गुणों से युक्त पात्र मिलने पर ही उसे आचार्य पद पर स्थापित किया जाता है। इसकी विधि यह है सर्वप्रथम वेदिका बनाना, यव आदि का वपन करना, आरती महोत्सव करना, बिना किसी प्रतिबन्ध के विपुलदान देना, भोजन प्रदान करना, अमारि की घोषणा करवाना, याचकों को संतुष्ट करना आदि ये सब कार्य श्रावकों द्वारा किए जाते हैं । यह लोकव्यवहार है । पदस्थापना के बाद भी श्रावकों द्वारा साधर्मिक वात्सल्य तथा संघ की पूजा आदि कार्य किए जाते हैं। ये सभी कार्य ( शासन) शोभा के निमित्त एवं श्रावकों के पुण्य का वर्द्धन करने के लिए किए जाते हैं। आचार्य पद पर स्थापन की मूल विधि तो निम्नानुसार है
लग्न - दिवस की पूर्व संध्या के समय गुरु दसियों से युक्त, अर्थात् बिना सिले हुए आचार्य के वेष को तलवार से अंकित ढाल के मध्य में रखकर गणिविद्या के द्वारा उसे अभिमंत्रित करे और रात्रि में
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