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आचारदिनकर (भाग-२)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान पौषधशाला में, या तीर्थ में, या मनोहर उद्यान में समवसरण की स्थापना कराए। भावी आचार्य उस समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करे। अक्षपोट्टलिका' को सूरिमंत्र से चंदन (श्रीखण्ड) कपूर आदि द्वारा एवं ग्रन्थि से अभिमंत्रित करे। अक्षपोट्टलिका-वलय, यंत्र- स्थापना प्रतिष्ठा-विधि एवं कल्पना-विधि प्रतिष्ठा अधिकार में कही गई हैं। फिर गुरु आसन से उठकर खड़ा होता है। तत्पश्चात् शिष्य खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन करके कहता है - "हे भगवन् ! आपकी इच्छा हो, तो आप मुझे द्रव्य, गुण, पर्याय द्वारा अनुयोग के ज्ञापनार्थ नंदी करने के लिए वासक्षेप करे एवं चैत्यवंदन कराएं।“ गुरु चंदन, कस्तूरी, कालागुरु, कुंकुम आदि से निर्मित सुगन्धित चूर्ण (वासक्षेप) को सूरिमंत्र द्वारा अभिमंत्रित करता है। वासक्षेप को निम्न सोलह मुद्राओं द्वारा अभिमंत्रित किया जाता है -
१. परमेष्ठीमुद्रा २. कामधेनुमुद्रा ३. गरुड़मुद्रा ४. आरात्रिकमुद्रा ५. सौभाग्यमुद्रा ६. गणधरमुद्रा ७. अंजलिमुद्रा ८. मुक्तासुक्तिमुद्रा ६. यथाजातमुद्रा १०. वज्रमुद्रा ११.मुद्गरमुद्रा १२. योनिमुद्रा १३. स्नानमुद्रा १४. छत्रमुद्रा १५. समाधानमुद्रा १६. कल्पवृक्षमुद्रा।
इन मुद्राओं को धारण कर सूरिमंत्र द्वारा अभिमंत्रित वासक्षेप (सुगन्धित चूर्ण) को भावी आचार्य के सिर पर डालते हैं। फिर गुरु दाएँ हाथ की ओर एवं शिष्य बाएँ हाथ की ओर स्थित होकर वर्द्धमान-स्तुतियों द्वारा चैत्यवंदन करते हैं। तत्पश्चात् श्रुत-देवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रदेवता, भुवनदेवता, शासनदेवता और वैयावृत्त्यकर देवता की स्तुति पूर्व में कहे गए अनुसार करते हैं।
फिर शक्रस्तव, अर्हणादि स्तोत्र एवं जयवीयराय की गाथाएँ
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१. स्थापनाचार्य जी की पोटली। बोलते हैं। तत्पश्चात् शिष्य मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके द्वादशावतपूर्वक वन्दन करे। फिर दोनों ही “अनुयोग प्रारंभ करने के निमित्त मैं कायोत्सर्ग करता हूँ"- ऐसा कहकर अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चिंतन करे एवं कायोत्सर्ग पूर्ण करके प्रकट में चतुर्विंशतिस्तव बोलें। फिर खड़े होकर
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