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आचारदिनकर (भाग - २)
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जैनमुनि जीवन के विधि-विधान दोनों दिन तीन-तीन दत्तियाँ ग्रहण करे, अर्थात् दो भोजन की और एक पानी, या दो पानी की तथा एक भोजन की ।
गोशालशतक की अनुज्ञा तक उनचास दिन होते हैं तथा उनचास ही काल ग्रहण होते हैं । स्कन्धक उद्देशक, चमर उद्देशक एवं गोशालशतक की अनुज्ञा हो जाने पर खमासमणासूत्रपूर्वकवंदन, कालग्रहण आदि की क्रिया करना नहीं कल्पता है । इस कालावधि में सत्तर कालों का ग्रहण होता है । मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना, द्वादशावर्त्तवन्दन, खमासमणासूत्रपूर्वक वंदन, कायोत्सर्ग आदि क्रियाएँ दिन में दो-दो बार करते है । इस प्रकार यह योग समाप्त होता है । उनचास दिनों के पश्चात् गोशालशतक की अनुज्ञा हो जाने पर अष्टम योग प्रारम्भ होता है । उसमें सात दिन नीवि एवं आठवें दिन आयम्बिल - इसी क्रम से छः मास तक नित्य करते हैं। वर्तमान स्थविरों का यह मत है कि अष्टमी, चतुर्दशी के दिन आयम्बिल करे और शेष दिनों में छः मास के अन्त तक नीवि करे । गोशालशतक में तीन दत्तियों का भंग होने पर सर्वभग्न माना जाता है । चरमेन्द्र के उद्देशक के षष्टं योग के पश्चात् अष्टम योग में विकृति से युक्त व्यंजन आदि गुरु द्वारा निर्दिष्ट कवल परिमाण अन्य योगवाही की नीवि के समान ही कल्प्य हैं। अतः “विगई विसज्जावणत्थं ओहडावणत्थं‘“ कायोत्सर्ग करते हैं । अन्नत्थसूत्र बोलकर कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग में नमस्कार मंत्र का चिन्तन करे और कायोत्सर्ग पूर्ण करके नमस्कार मंत्र बोले । वहाँ पहले दिन पूर्वोक्त गणियोग की विधि से व्यंजन आदि ग्रहण करे । गोशालशतक की अनुज्ञा के पश्चात् पचासवें दिन से लेकर एक-एक दिन एक-एक शतक के एक-एक कालग्रहण द्वारा, छब्बीस शतकों की पचासवें दिन से लेकर पचहत्तरवें दिन तक उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। शतक मध्यगत उद्देशक के आधे शतकों की आदि संज्ञा के द्वारा एवं आधे शतकों की अन्तिम संज्ञा द्वारा उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की विधि करे। अगर शतकों में उद्देशकों की संख्या विषम हो, तो आदि में एक उद्देशक ज्यादा ले, अर्थात् उनके समान दो भाग करे, आदि में एक उद्देशक अधिक रखे।
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