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________________ आचारदिनकर (भाग-२) 114 जैनमुनि जीवन के विधि-विधान की क्रिया करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ आठ-आठ बार तवें और आठति ही करे। बाकों के उद्देश, दिन एवं अन्त के सूत्र में योगवाही पूर्ववत् इसकी क्रिया, दसवे, ग्यारत की विधि तेरहवें एवं चौ छटें, सातवें और आठवें शतक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की विधि पाँचवें शतक की भाँति ही करे। बाईसवें दिन से लेकर एकतालीसवें दिन तक पाँच से लेकर आठ शतकों के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया पाँच-पाँच दिनों से करे। (अर्थात् पाँच-पाँच दिन से एक-एक शतक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे।) - बयालीसवें दिन :- बयालीसवें दिन योगवाही एक काल का ग्रहण करे तथा नवें शतक के उद्देश की क्रिया करे। इसके साथ ही नवें शतक के आदि के सत्रह एवं अन्त के सत्रह - ऐसे चौंतीस उद्देशकों के उद्देश की क्रिया करे। तत्पश्चात् नवें शतक तथा उसके आदि के सत्रह एवं अन्त के सत्रह - ऐसे चौंतीस उद्देशकों के समुद्देश की क्रिया करे। तत्पश्चात् पुनः नवें शतक तथा उसके आदि के सत्रह एवं अन्त के सत्रह - ऐसे चौंतीस उद्देशकों के अनुज्ञा की क्रिया करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ नौ-नौ बार करे। नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें एवं चौदहवें शतक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की विधि एक जैसी ही है। इन शतकों में क्रमशः चौंतीस, चौंतीस, बारह, दस, दस एवं दस उद्देशक हैं। इन सभी शतकों के दो भाग करके एक-एक दिन एक-एक कालग्रहण के द्वारा एक-एक शतक के उद्देश, समुद्देश एवं अनुज्ञा की क्रिया करे। बयालीसवें दिन से लेकर सैंतालीसवें दिन तक इसी विधि से योगोद्वहन की क्रिया करे। प्रत्येक दिन इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ नौ-नौ बार करे। __अड्तालीसवें दिन :- अड़तालीसवें दिन योगवाही आयम्बिलतप एवं एक काल का ग्रहण करे तथा गोशाल नामक पन्द्रहवें शतक के उद्देश, समुद्देश की क्रिया करे। यदि योगवाही उसी दिन गोशालशतक को पढ़ लेता है तो, उसे उसी दिन उसकी अनुज्ञा दे देते हैं, अन्यथा दूसरे दिन भी आयम्बिल करके एवं कालग्रहण के द्वारा उसकी अनुज्ञा प्राप्त करे। इसकी क्रियाविधि में योगवाही पूर्ववत् सभी क्रियाएँ पहले दिन दो-दो बार करे तथा दूसरे दिन एक-एक बार करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001694
Book TitleJain Muni Jivan ke Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Religion, & Vidhi
File Size15 MB
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