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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 64 से दृष्ट और क्रूर ग्रहों से संयुक्त चन्द्रमा का त्याग करें और अंतस्थ लग्न और चंद्र का भी त्याग करें इत्यादि गुण-संयुक्त, दोष- विवर्जित लग्न में, शुभ अंश में, शुभ ग्रहों की दृष्टि पड़ने पर पाणिग्रहण करना शुभ होता है, इत्यादि। भद्रबाहु, वराह, गर्ग, लल्ल, पृथुयश, श्रीपति के द्वारा प्रतिपादित विवाहशास्त्र के आधार पर, सम्यक् प्रकार से लग्न देखकर विवाह-कार्य आरंभ करें। कुल की परम्परा तथा देश आदि के रीति-रिवाज को गृहस्थ गुरू द्वारा विशेष रूप से जानें, जैसा कि गर्ग आदि मुनियों द्वारा पूर्व में विवाह-विधि के लिए बताया गया है। जब सूर्य तीसरे, छठे एवं दसवें स्थान में स्थित हो, चन्द्र तीसरे, छठे, सातवें एवं दसवें स्थान में स्थित हो, गुरू दूसरे, पांचवें, सातवें एवं नवें स्थान में हो, वक्री शनि छठे और तीसरे स्थान में हो, बुध दूसरे, चौथे, छठे, आठवें एवं दसवें स्थान में हो, सभी शुभ ग्रह उपान्त में हो, तो षष्ठम, सप्तम, दशम स्थान में स्थित शुक्र सिंह के समान त्रास (दुःख) देने वाला होता है। स्त्रियों का बृहस्पति बलवान् हो, पुरूषों का सूर्य बलवान् हो और दम्पत्ति का चंद्र बलवान् हो, तो लग्न का शोधन करें। यहाँ पहले कन्यादान की विधि बताते हैं : वर-पक्ष पूर्व में बताए गए अनुरूप कुल एवं शील से युक्त अन्यगोत्र की कन्या की याचना करे, अर्थात् कन्या को मांगे। कन्या पक्ष भी उसी प्रकार के पूर्व में कहे गए गुणों से युक्त वर को कन्या दे। कन्या के कुल के ज्येष्ठ व्यक्ति द्वारा वर के कुल के ज्येष्ठ व्यक्ति को नारियल, सुपारी, जिन-उपवीत, धान, दूब, हल्दी आदि के दान से अपने-अपने देश एवं कुल-परम्परा के अनुसार कन्यादान करना चाहिए। वहाँ गृहस्थ गुरू वेदमंत्र पढ़े। वह मंत्र इस प्रकार है : ___ "ॐ अर्ह परमसौभाग्याय, परमसुखाय, परमभोगाय, परमधर्माय, परमयशसे, परसन्तानाय भोगोपभोगान्तरायव्यवच्छेदाय, इमाममुकनाम्नी कन्याममुकगोत्राममुकनाम्ने वराय अमुकगोत्राय ददाति, प्रतिगृहाण अर्ह ऊँ।" उसके पश्चात् कन्या-पक्ष के लोग सब को ताम्बूल देते हैं। विवाह-काल दूर होने पर तथा वर के पिता के जीवित होने पर कन्या किसी अन्य को न दें, क्योंकि कहा गया है - "राजा लोग एक ही बार बोलते हैं, पण्डित भी एक ही बार बोलते हैं, कन्या भी एक बार दी जाती है - ये तीनों कार्य एक-एक बार ही होते हैं।" वर भी उस कन्या के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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