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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 62 उससे ऊपर आयु वाली कन्या रजस्वला होती है, तथा वह कन्या राका कहलाती है। उसका (कन्या का) विवाह शीघ्र कर देना चाहिए। वर मिलने पर चन्द्रबल में तुच्छ महोत्सव होने पर भी लग्न करें।" जैसा कि कहा गया है – “राका कन्या के विवाह में वर्ष, मास, दिन आदि की शुद्धि नहीं देखनी चाहिए। चंद्रबल वाले वर के प्राप्त होने पर विवाह कर देना चाहिए। पुरूष का आठ वर्ष से लेकर अस्सी वर्ष के बीच में विवाह हो सकता है, पर उसके बाद शुक्राणुरहित होने के कारण वह पुरूष विवाह के योग्य नहीं होता।" ___ "ब्राह्म, प्राजापत्य, आर्ष एवं दैव - इन चार प्रकार के विवाहों में पाणिग्रहण धर्माधारित एवं माता-पिता के वचन के योग से होता है। गान्धर्व, आसुर, राक्षस एवं पैशाच - ये चार पाप-विवाह स्वेच्छा से होते हैं। ब्राह्म-विवाह की विधि इस प्रकार है : शुभ दिन, शुभ लग्न में पूर्व में कहे गए गुण युक्त वर को बुलाकर उसे स्नानपूर्वक अलंकृत करें एवं अलंकृत कन्या दें। इसका मंत्र इस प्रकार है : "ऊँ अहं सर्वगुणाय, सर्वविद्याय, सर्वसुखाय, सर्वपूजिताय, सर्वशोभनाय तुभ्यंवस्त्र गन्धमाल्यालंकारालंकृतां कन्यां ददामि, प्रतिगृण्हीष्व भद्रं भव ते अर्ह ऊँ" इस मंत्र द्वारा वस्त्रांचल-बन्धन कर दंपत्ति अपने घर जाते हैं। यह ब्राह्म-विवाह धर्माधारित है। प्रजापति-विवाह जगत् प्रसिद्ध हैं, उसका विवेचन आगे विस्तार से किया जाएगा। आर्ष-विवाह में वन में रहने वाले गृहस्थ मुनि अपनी पुत्री को अन्य ऋषि को गाय और बैल के दान के साथ देते हैं। वहां अन्य किसी प्रकार का कोई उत्सव आदि नहीं होता। इस विवाह का वेदमंत्र जैन शास्त्रों में नहीं है, क्योंकि जैन इसे अकृत्य मानते हैं। देव-विवाह में यज्ञादि कर्मों की पूर्ति के लिए पिता पुरोहित को अपनी कन्या दक्षिणावत् देते हैं। यह देव-विवाह धर्मानुकूल है। ये चारों ही विवाह धर्मानुसार हैं। पिता आदि की अनुमति के बिना वर एवं कन्या के परस्पर प्रेम एवं चेष्टायुत विवाह गान्धर्व विवाह हैं। धनादि देकर होने वाला विवाह आसुर-विवाह है। संरक्षक से हठपूर्वक कन्या का ग्रहण करना राक्षस-विवाह है। सुप्त या प्रमत्त कन्या को ग्रहण करना पैशाचिक-विवाह के नाम से विख्यात है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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