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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 60 ऐसी श्रद्धा रखकर हे वत्स ! तुझे तीनों शुद्धियों के द्वारा गुरू की उपासना करनी चाहिए, जिससे वाणी, बुद्धि, यश, धैर्य और लक्ष्मी प्राप्त होती है।"
- इस प्रकार शिष्य को शिक्षा देकर उसके द्वारा स्वर्ण एवं वस्त्ररूप दक्षिणा को लेकर गुरू अपने घर जाए।
उसके बाद उपाध्याय सर्वप्रथम मातृका-पद पाठ पढ़ाए, अर्थात् स्वर-व्यंजन का ज्ञान कराए। तत्पश्चात् विप्र को पहले आयुर्वेद, उसके बाद षट् अंग एवं उसके बाद धर्मशास्त्र और पुराण आदि पढ़ाए। क्षत्रियों को भी इसी प्रकार पहले चौदह विद्याएँ, उसके बाद आर्यवेद, धनुर्वेद, दण्ड, नीति और आजीविका का ज्ञान दे।
वैश्यों को धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र के साथ आजीविका शास्त्र का ज्ञान दे। कारूओं को उनके अनुरूप विज्ञानशास्त्र, अर्थात् शिल्पादि का अध्ययन कराए।
उसके पश्चात् साधुओं को चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र एवं पुस्तक का दान करे।
विद्यारंभ-संस्कार हेतु उसमें सहायक उपकरण, गीत, वाद्य, मंत्र, उपदेश आदि का संग्रह अभीष्ट है।
इस प्रकार आचार्य श्री वर्धमानसूरि प्रतिपादित आचारदिनकर में गृहस्थ-धर्म में विद्यारंभ-संस्कार नामक तेरहवां उदय समाप्त होता है।
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