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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 59 // तेरहवां उदय // विद्यारंभ-संस्कार
विद्यारंभ में अश्विनी, मूल, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशीर्ष, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, हस्त, शतभिषा, स्वाति, चित्रा, श्रवण एवं धनिष्ठा नक्षत्र तथा बुध, गुरू एवं शुक्रवार, विद्याध्ययन के लिए शुभ माने जाते हैं। रवि और सोमवार मध्यम माने जाते हैं। मंगल एवं शनिवार त्याज्य हैं। प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं रिक्ता अष्टमी एवं नवमीं पाठारंभ के सद्कार्य में वर्जित हैं। उपनयन के समान ही शुभ दिन एवं शुभ लग्न होने पर विद्यारंभ संस्कार करें। उसकी विधि इस प्रकार है - गृहस्थ गुरू सर्वप्रथम उपनीत पुरूष के घर में पौष्टिककर्म करे। उसके बाद गुरू देवालय में, उपाश्रय में, अथवा कदंब वृक्ष के नीचे स्वयं कुश के आसन पर बैठे। शिष्य को वाम पार्श्व में कुश के आसन पर बैठाए और उसके दाहिने कान को पूजकर तीन बार सारस्वत मंत्र पढ़े।
फिर मनुष्य द्वारा खींची जाने वाली गाड़ी या अश्व पर बैठाकर मंगल गीत गाते हुए, दान देते हुए, गाजे-बाजे के साथ शिष्य को गृहस्थ गुरू अपने घर, या अन्य उपाध्याय की शाला में, या उपाश्रय में यति गुरू के पास ले जाकर मण्डली-पूजापूर्वक वासक्षेप करवाकर पाठशाला ले जाए। उसके बाद शिष्य गुरू के सम्मुख बैठकर यह शिक्षा श्लोक पढ़े -
"जिन्होंने अज्ञानरूपी अंधकार से अंधे लोगों के नेत्र ज्ञानरूपी अंजन शलाका से खोले हैं, ऐसे गुरू को मैं नमस्कार करता हूँ।
जिनकी कृपा से परम्परा के जानकार लोग शास्त्रों को सम्यक् प्रकार से समझ लेते हैं एवं जो इच्छित अर्थ को देने वाले हैं, उन गुरू-चरणों में मैं नमस्कार करता हूँ।
जिसकी उपस्थिति में दुःख के स्थान पर आनंद प्रदान करने वाली वस्तुएँ दूर होने पर भी समीप में स्थित के समान प्राप्त हो जाती हैं और जिनके अभाव में लोगो का मन कहीं भी स्थिर नहीं हो पाता हैं, ऐसी श्रद्धा रखने वाले लोगों के अन्यमनस्क होने पर भी सद्गुरू की उपासना से कौन सी भलाई नहीं होती है, अर्थात उनके सर्वार्थ सिद्ध होते हैं।
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