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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 55 गुरू जिनेश्वर की अष्टप्रकारी पूजा करे और चारों दिशाओं में शक्रस्तव का पाठ करे। उसके बाद गुरू आसन पर बैठ जाए। श्वेत वस्त्रों एवं उत्तरासन को धारण किए हुए शिष्य, समवशरण एवं गुरू की प्रदक्षिणा देकर "नमोस्तु-नमोस्तु" कहकर गुरू को प्रणाम करके हाथ जोड़कर खड़े होकर गुरू से इस प्रकार कहे - "भगवन् ! मुझको मनुष्य जन्म, आर्य देश, आर्य कुल की प्राप्ति हुई है। आप मुझको बोधिरूप जिनाज्ञा दें। गुरू कहते हैं "मैं देता हूँ।" शिष्य पुनः प्रणाम करके कहता है - "मैं उपनयन के योग्य नहीं हूँ, इसलिए जिनाज्ञा दें।" गुरू कहते हैं - "मैं अनुज्ञा देता हूँ। उसके बाद बारह धागो से बुने हुए सूती या रेशमी, जिन उपवीत के समान ही लम्बाई वाले, उत्तरीय वस्त्र को परमेष्ठी मंत्र का उच्चारण करते हुए, जिन-उपवीत की तरह ही पहनाएं। उसके बाद गुरू पूर्वाभिमुख (बैठे हुए) शिष्य को चैत्यवंदन कराए। तत्पश्चात् शिष्य "नमोस्तु-नमोस्तु" कहकर सुखपूर्वक बैठे हुए गुरू के पैरों में पड़कर पुनः खड़े होकर हाथ जोड़कर इस प्रकार कहे -- "भगवन् ! उत्तरीय वस्त्र धारण करवाकर, क्या मुझमें जिनाज्ञा का आरोपण कर दिया गया है ?" गुरू कहते हैं - "तुम सम्यक प्रकार से जिन-धर्म में आरोपित हो गए हो, भवसागर को पार करो।" उसके बाद गुरू आगे बैठे हुए शिष्य को व्रत की अनुज्ञा दे। वह व्रतानुज्ञा इस प्रकार है – “सम्यक प्रकार से निर्दिष्ट किए गए बारह व्रत तुम्हें धारण करना चाहिए। तुम्हें कुल का मद नहीं करना चाहिए। तुम्हे जैन साधुओं एवं जैन ब्राह्मणों की उपासना करनी चाहिए। तुम्हें गीतार्थ (ज्ञानियों) के द्वारा निर्दिष्ट तप भी करना चाहिए। कभी किसी पापात्मा की निंदा मत करना और न कभी स्वयं की प्रशंसा करना। तुम्हारे द्वारा ब्राह्मण को अन्नदान न देना हितकारी है। शेष चारों वर्णो की शिक्षा के लिए बताए गए श्लोकों की व्याख्या के अनुसार तुम्हें आचरण करना चाहिए। उत्तरीय वस्त्र गिरने पर अथवा उसका भंग होने पर उसे उपवीत के समान ही पुन: ग्रहण करें। "हे शूद्र ! तुम्हे प्रेतकर्म व्रत का आचरण करना चाहिए। यह विधि उत्तरीय (उत्तरासंग) की अनुज्ञा में भी बताई गई है। क्षत्रिय एवं वैश्यों को भी देश-काल आदि के योग से उपवीत का त्याग होने पर उत्तरीय (उत्तरासंग) का प्रयोग करना चाहिए। धर्म कार्य में, गुरू के सामने, देवालय एवं उपाश्रय में तथा प्रेत-कर्म में भी उसे सूत्र के समान धारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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