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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 54 "ऊँ अर्ह गौरियं, धेनुरियं, प्रशस्यपशुरियं, सर्वोत्तमक्षीरदधिघृतेयं, पवित्रगोमयमूत्रेयं, सुधाम्राविणीयं, रसोद्भाविनीयं, पूज्येयं, हृद्येयं, अभिवाद्येयं, तद्दत्तेयं त्वया धेनुः कृतपुण्यो भव प्राप्तपुण्यो भव अक्षयं दानमस्तु अहं ऊँ।।"
__ यह कहकर गृहस्थगुरू गाय को स्वीकार करे। उसके साथ शिष्य उनको द्रोण, अर्थात् माप विशेष के प्रमाणानुसार सात प्रकार का धान्य, तुलामात्र (तराजू के पलड़े के बराबर) षट्रस एवं एक व्यक्ति की तृप्ति के योग्य सात विकृतियों का दान करे। यह गोदान है। अन्य सभी, अर्थात् भूमि-रत्नादि के दान का मंत्र यह है -
"ऊँ अहं एकमस्ति, दशकमस्ति, शतमस्ति, सहस्रमस्ति, अयुतमस्ति, लक्षमस्ति, प्रयुतमस्ति, कोट्यस्ति, कोटिदशकमस्ति, कोटिशतकमस्ति, कोटिसहस्रमस्ति, कोट्ययुतमस्ति, कोटिलक्षमस्ति, कोटि प्रयुतमस्ति, कोटाकोटिरस्ति, संख्येमस्ति, असंख्येयमस्ति, अनंतमस्ति, अनंतानंतमस्ति, दान फलमस्ति तदक्षयं दानमस्तु ते अर्ह ऊँ।।"
यह मंत्र पाठ अन्य वस्तुओं के दान के लिए है। यहाँ उपनयन-संस्कार में केवल गोदान का ही विधान है, शेष दान क्रमानुसार किसी अन्य समय दें। गोदान आदि गृहस्थ गुरू एवं विप्रों को ही दें, निःस्पृह यतियों को नहीं। - यति के लिए अन्न-पान (आहार) वस्त्र, पात्र, औषधि तथा रहने के लिए उपाश्रय ही देय है। उनको द्रव्य की अपेक्षा रखने वाला दान नहीं दिया जाता, क्योंकि वे अनासक्त और अपरिग्रही होते हैं। गृहस्थ गुरू उपनीत पुरूष द्वारा दिया गया गोदान ग्रहण करके वर्ण की अनुज्ञा देकर चैत्यवंदन एवं साधुवंदन करके उसी प्रकार संघ के एकत्र होने पर, मंगलगीत एवं वाद्यों की ध्वनि का प्रसार होने पर शिष्य को साधुओं की वसति, अर्थात् उपाश्रय में ले जाए। वहाँ पूर्व की भाँति ही मण्डल पूजा, वासक्षेप एवं साधुओं को वन्दन करे। फिर चतुर्विध संघ की पूजा करे तथा मुनियों को आहार, वस्त्र, पात्र आदि का दान करे। यह गोदान-विधि है। इस प्रकार यह चतुर्विध (चारों) वर्णों की उपनयन-विधि संपूर्ण होती है।
शूद्र को उत्तरीय वस्त्र देने की विधि इस प्रकार है - __ इसमें सात दिन तक तेल का मर्दन एवं स्नान पूर्ववत् ही करना होता है। उसके बाद पूर्ववत् विधि के अनुसार पौष्टिककर्म करे, फिर पूरे सिर का मुण्डन कराएं। चौकोर बाजोट रखना तथा जिन-प्रतिमा की स्थापना करना आदि सब कार्य पूर्व की भांति ही करें। उसके बाद गृहस्थ
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