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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 53 भगवन् ! आपने मुझे तारा है, मेरा निस्तार किया है, मुझको उत्तम बनाया है, मुझे श्रेष्ठ बनाया है, मुझे पवित्र किया है, तो भगवन् आप मुझे प्रमाद की बहुलता वाले गृहस्थ-धर्म में भी किसी सारभूत सुकृत (धर्म/पुण्य) का आदेश दीजिए।" तब गुरू कहते हैं - "वत्स ! तूने अच्छा अनुष्ठान किया, अच्छा प्रश्न किया, तो सुन- दया ही परम धन है, दान ही परम क्रिया है, दान ही परम मार्ग है। इसलिए दान करने में मन लगा, अर्थात् दान देने का मानस बना। अभयदान ही दया है तथा उपकार है। समस्त धर्म-समूह दान में अन्तर्भाव करने योग्य हैं।" ब्रह्मचारी पाठ करने से, अर्थात् अध्ययन करने से, भिक्षु समाधि की साधना से, वानप्रस्थी मनुष्य कष्ट सहन करने से तथा गृहस्थ दान से शुद्ध होता है। ज्ञानी, परमार्थ के ज्ञाता, अरिहंत परमात्मा, जगत् के ईश्वर (जगदीश्वर) हैं, वे भी व्रत-ग्रहण-काल में विशेष रूप से एक वर्ष तक दान देते हैं। दान ग्रहण करने वाले को पूर्ण प्रसन्नता देता है तथा दाता को अक्षय पुण्य प्रदान करता है, इसलिए दान के समान इस लोक में मोक्ष का कोई दूसरा उपाय नहीं है, तो हे वत्स ! तुम ब्राह्मण, या क्षत्रिय, या वैश्य बन गए हो, (अतः) गृहस्थ धर्म में मोक्ष के सोपान रूप दान-धर्म को प्रारंभ करो।" तब शिष्य प्रणाम करके कहता है - "भगवन् ! मुझे दान की विधि का आदेश दें, अर्थात् बताएं।" गुरू कहते हैं - "मैं आदेश देता हूँ, अर्थात् बताता हूँ, जैसे-“बछिया सहित गाय, भूमि, स्वर्ण, रत्न, पांच प्रकार के वस्त्र, गज और अश्व - ये आठ प्रकार के दान कहे गए हैं। यह आठ प्रकार का दान गृहस्थ एवं ब्राह्मण गुरूओं को देना चाहिए। यति, अर्थात् साधु इन सब को ग्रहण नहीं करते हैं, क्योंकि वे निःस्पृह होते हैं, यतियों को भोजन, वस्त्र, पात्र, औषधि एवं पुस्तक का दान देना चाहिए। यति को द्रव्य का दान करने से वे दोनों ही, अर्थात् दाता और दान लेने वाला यति दोनों ही नरक गामी होते हैं। गोदान की विधि का विवरण इस प्रकार है -
उपनीत पुरूष बछिया/बछड़ा सहित भूरी गाय या लाल गाय अथवा उसके अभाव में सफेद गाय को, जिसको स्नान कराया जा चुका है तथा जो सुगन्ध से युक्त व भूषित है, ऐसी उस गाय को सामने लाकर
और पूंछ पकड़कर, चांदी से मढ़े हुए खुरोंवाली, सोने से मढ़े हुए सींगो वाली, तांबे की पीठ वाली, कांसे के दोहन-पात्र वाली उस गाय को गुरू को दे। गुरू उस की पूँछ को हाथ में पकड़कर यह वेद मंत्र पढ़े -
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