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षोडश संस्कार
आचार दिनकर
एवं विकलांगो का कभी उपहास नहीं करना । भूख प्यास, घृणा, क्रोध आदि के उत्पन्न होने पर भी उन्हें प्रकट नहीं करना । छः शत्रुओं (क्रोध, मान, माया, मद, लोभ, मत्सर) पर विजय प्राप्त करना एवं गुणानुरागी बनना । देशानुरूप लोकाचार का पालन करना । पाप एवं लोकनिंदा का भय रखना। समान आचार वाले तथा समजाति वाले, किन्तु अन्यगौत्र वाले व्यक्तियों के यहाँ विवाह संबंध करना । त्रिवर्ग की सिद्धि इस प्रकार करना कि कोई भी पुरूषार्थ किसी दूसरे को बाधित न करे। दूरदर्शिता, कृतज्ञता एवं लज्जा को अपनाना । अपने और पराए का विवेक रखना । देश, काल आदि का विचार कर कार्य करना । परोपकार करना एवं दूसरों को पीड़ा नहीं देना । अपमान होने पर पराक्रम दिखाना, अन्यथा शान्त रहना । संध्या के समय में, जलाशय में (जलाशय के किनारे), श्मशान में और देवालय में निद्रा, आहार एवं संभोग क्रिया नहीं करना । कुएँ में प्रवेश, कुएँ का उल्लंघन एवं कुएँ के किनारे शयन-इन सब का वर्जन करना । बिना नाव के नदी पार नहीं करना । गुरू के आसन एवं शय्या पर कुभूमि ( खराब स्थान) पर, ताड़पत्र के डंठल पर, दुर्जनों की सभा में एवं जहाँ कुकर्म होते हों, उन स्थानों पर कभी नहीं बैठना। गड्ढ़े आदि को नहीं लांघना एवं दुष्ट स्वामी की सेवा नहीं करना । चतुर्थी का चंद्रमा, नग्न स्त्री एवं इन्द्रधनुष को नहीं देखना। हाथी, अश्व एवं नख वाले जानवरों एवं निंदक
इनका दूर से ही त्याग करना । दिवस में सहवास नहीं करना एवं रात को वृक्ष के पास नहीं रहना । कलह की स्थिति में कलहकारी के सामीप्य का हमेशा त्याग करना । देशकाल के विरूद्ध, भोजन, आवागमन, भाषण, आय एवं व्यय कभी नहीं करना । ये सभी व्रतादेश उत्तम हैं और चारों वर्णों के लिए समान रूप से आचरणीय हैं।
गृहस्थ गुरू शिष्य को यह व्रतादेश देकर आगे जाकर जिन - प्रतिमा की प्रदक्षिणा कराए। पुनः पूर्वाभिमुख होकर शक्रस्तव का पाठ करे। उसके बाद गृहस्थ गुरू आसन पर बैठे । “नमोस्तु - नमोस्तु" कहकर शिष्य गुरु के पैरों में गिरकर इस प्रकार कहे "भगवन्! क्या आपने मुझे व्रतादेश दे दिया है ?" गुरू कहते हैं " दे दिया है । दिए गए व्रतों को अच्छी तरह से ग्रहण करना। उनकी सुरक्षा करना । संसार सागर से स्वयं पार करना एवं दूसरों को भी पार कराना।"
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यह कहकर नमस्कार मंत्र बोलते हुए उठकर दोनों चैत्यवंदन करें। उसके बाद उपनीतं ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों के घर में भिक्षाटन करे ।
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