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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 51 क्षत्रिय शस्त्र ग्रहण करें एवं वैश्य अन्न का दान करें, यह उपनेय पुरूष का व्रतादेश है।
व्रत-विसर्ग, अर्थात् व्रत-विसर्जन की विधि निम्नानुसार हैं - _ब्राह्मण आठ से सोलह वर्ष तक दण्ड एवं मृगचर्म को धारण कर भिक्षा मांगकर भोजन करते हुए भ्रमण करे - यह उत्तम पक्ष है। क्षत्रिय दण्ड एवं मृगचर्म को धारण कर दस वर्ष से लेकर सोलह वर्ष तक गुरूदेव की सेवा करते हुए तथा स्वयं पकाकर भोजन करते हुए विद्याध्ययन करे। (क्षत्रिय भिक्षावृत्ति से भोजन नहीं करें।)
वैश्य दण्ड एवं मृगचर्म की छाल को धारण करके बारह वर्ष से लेकर सोलह वर्ष तक स्वयं के द्वारा बनाया हुआ भोजन करते हुए विद्याध्ययन हेतु भ्रमण करे - यह उत्तम पक्ष है, परन्तु यदि व्यग्रता के कारण इस प्रकार रहना संभव न हो, तो छ: मास तक ही (इस रूप में) रहे, उक्त संभावना के अभाव में एक मास, एक मास के भी अभाव में एक पक्ष, पक्ष के अभाव में तीन दिन और तीन दिनों के भी अभाव में मात्र एक दिन में ही उसे व्रत-विसर्जन कर देना चाहिए। .
व्रत विसर्जन विधि इस प्रकार है :
उपनीत व्यक्ति तीन-तीन प्रदक्षिणा देकर चारों दिशाओं में जिन-प्रतिमा के समक्ष पूर्ववत् आदिदेव के स्तोत्र सहित शक्रस्तव का पाठ करे। उसके बाद आसन पर बैठे हुए गुरू के आगे नमस्कार करके, हाथ जोड़कर इस प्रकार कहे - "भगवन् ! देश-काल आदि की अपेक्षा से व्रत-विसर्जन का आदेश दें।गुरू कहते हैं – “मैं आदेश देता हूँ।" पुनः प्रणाम करके शिष्य कहता है - "भगवन् ! क्या मुझे व्रत-विसर्जन का आदेश दे दिया गया है ?" गुरू कहते हैं - "हाँ, आदेश दे दिया गया है।" ___पुनः प्रणाम करके शिष्य कहता है - "हे भगवन् ! क्या व्रतबंधन का विसर्जन हो गया है ?" गुरू कहते हैं - "जिन-उपवीत धारणरूप व्रत का विसर्जन नहीं होता है, किन्तु कटिमेखला, दण्ड आदि का विसर्जन होता है। जन्म से सोलह वर्ष तक ब्रह्मचारी रहकर अध्ययन एवं धर्म-आराधना में लगा रहना चाहिए।" फिर उपनीत पंचपरमेष्ठी मंत्र को बोलते हुए पहले मूंज की कटिमेखला, लंगोटी, वल्कल एवं दण्ड को उतारकर गुरू के आगे स्थापित करें। फिर जिनउपवीतधारी शिष्य श्वेत वस्त्र एवं उत्तरीय वस्त्र धारण करके गुरू के आगे प्रणाम करके बैठे।
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