________________
षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 49 प्रतिदिन त्रिकाल परमात्मा की पूजा करना और सात बार परमात्मा की स्तुति करना। परमेष्ठी मंत्र का स्मरण करना और निर्ग्रन्थ गुरू की सेवा करना। दोनों समय आवश्यक क्रिया (सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान) करना एवं द्वादश व्रतों का पालन करना। गृहस्थोचित तपोविधि करना, उत्तम धर्म-श्रवण करना। परनिन्दा का त्याग करना और सभी जगह उचित व्यवहार करना। वाणिज्य, पशुपालन एवं कृषि द्वारा जीविका का उपार्जन करना। प्राणों के नाश का अवसर उपस्थित होने पर भी कभी सम्यक्त्व का परित्याग न करना। मुनियों को आहार, पात्र, वस्त्र एवं रहने के लिए स्थान देना। जो गहन कर्मबन्ध का निमित्त नहीं होता, उस प्रकार का उत्तम व्यापार करना। उपनीत वैश्य द्वारा इन कर्तव्यों का पूर्णतया पालन करना चाहिए। इस प्रकार यह वैश्यों का व्रतोदश कहा गया है।
अब चारों ही वर्गों के लिए जो समान व्रतादेश हैं, उसका विवरण निम्नांकित है :
स्वयं के पूज्य गुरू के निर्देश के अनुसार देव की उपासना व धर्म का पालन करना। देव की अर्चना, साधुओं की पूजा (अर्थात् साधुओं का सत्कार करना) एवं ब्राह्मण तथा सन्यासियों को प्रणाम करना। न्याय-नीति द्वारा धन-उपार्जन करना एवं परनिंदा (विकथा) का त्याग करना। कभी भी किसी की, विशेषकर राजा की, आलोचना (अवर्णवाद) नहीं करना। अपने सत्व का त्याग नही करना एवं सम्पत्ति के अनुरूप दान देना। आय–अनुरूप ही व्यय करना एवं समय पर भोजन करना। जिस देश में पानी की तंगी हो, नदी न हो एवं गुरू का योग न मिलता हो, वहाँ निवास नहीं करना।
राजा, सर्प, नीच, मंत्री, स्त्री, नदी, लोभी व्यक्ति एवं पूर्व के वैरियों का कभी भी विश्वास नहीं करना। बिना किसी कार्य (प्रयोजन) के स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा नहीं करना। कभी भी असत्य एवं अहितकर वचन नहीं बोलना एवं गुरूजनों से विवाद नहीं करना। माता-पिता एवं गुरू को श्रेष्ठ मानकर उनका मान-सम्मान करना। सत्शास्त्रों का ही श्रवण करना। अभक्ष्य वस्तुओं का भक्षण नहीं करना। ग्रहण करने योग्य का त्याग नहीं करना और जो मारने योग्य नहीं हैं, उनको नहीं मारना। अतिथि, सुपात्र एवं दीन को यथाविधि दान करना एवं दरिद्रों, अंधे व्यक्तियों और आपत्तिग्रस्तों को भी यथाविधि दान देना। हीन अंग वाले
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org