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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर 47 उसको आदेश एवं समादेश के लिए कहते हैं, पर अनुज्ञा के लिए नहीं कहते है । वह स्वयं कर सकता और करवा सकता है, किन्तु दूसरों को करवाने की अनुमति नहीं दे सकता है। वैश्य को आदेश का, अर्थात् करने का ही कथन करते हैं, अर्थात् यह व्रतबंधन स्वयं उसके द्वारा करणीय है, ऐसा आदेश देते हैं, समादेश एवं अनुज्ञा नहीं देते। स्वयं को करने की ही अनुमति देते हैं। दूसरों को करवाने एवं दूसरों को करवाने की अनुज्ञा देने का कथन नहीं करते हैं । उसके पश्चात् उपनीत पुरूष हाथ जोड़कर कहता है - "हे भगवन्! मुझको व्रत का आदेश ( उपदेश) करें। " गुरू ब्राह्मण के लिए इस प्रकार व्रतादेश देते हैं "परमेष्ठी महामंत्र को हमेशा हृदय में रखना, निर्ग्रन्थों एवं मुनिवरों की नित्य उपासना करना, प्रतिदिन त्रिकाल अर्हत् परमात्मा की पूजा करना, तीन बार सामायिक करना तथा सात बार शक्रस्त्व के द्वारा परमात्मा को वंदन करना । त्रिकाल अथवा एक काल (एक समय/बार) शुद्ध जल से स्नान करना । मदिरा, मांस, मधु एवं तुच्छ फल, जैसे गूलर के फल आदि पांच उदुम्बर का सेवन नहीं करना । इसी प्रकार कच्चे दूध, दही आदि में भात (चावल) के मिलाने पर होने वाले पुष्पित, अर्थात् जीवोत्पत्तियुक्त द्विदल का तथा संसक्त संधान, अर्थात् जीवोत्पत्तियुक्त अचार आदि का सेवन नहीं करना एवं रात्रि भोजन भी नहीं करना । शूद्र का अन्न, या नैवेद्य मृत्यु का संकट आने पर भी न खाना । गृहस्थावास में पुत्रोत्पत्ति हेतु ही मैथुन की आकांक्षा रखना, काम-वासना से नहीं। चारों आर्यवेद, अर्थात् चारों अनुयोग का यथाविधि अध्ययन करना । कृषि, पशुपालन एवं सेवावृत्ति नहीं करना । सत्य बोलना, प्राणी रक्षा करना एवं दूसरे की स्त्री एवं धन की इच्छा नहीं करना । कषायों एवं विषयों का, दुःख आने पर भी सेवन नहीं करना । क्षत्रियों एवं वैश्यों के घर में भी प्रायः तुम्हे भोजन नहीं करना चाहिए, किन्तु ब्राह्मणों एवं जैनों के घर में भोजन कर सकते हो। इसी प्रकार अपनी जाति में भी (भोजन) कर सकते हो, परन्तु अपनी ही जाति में भी मिथ्यात्व से वासित एवं कामुक व्यक्ति के घर में भोजन मत करना । प्रायः स्वयं के द्वारा बनाया हुआ ही भोजन करना । अपक्व अन्न मत खाना, नीच व्यक्तियों द्वारा सरलता से दान में मिली हुई वस्तु भी ग्रहण मत करना । नगर में भ्रमण करते हुए किसी की काया से स्पर्श मत करना । उपवीत, स्वर्णमुद्रिका एवं अधोवस्त्र का कभी त्याग नहीं करना । किसी कारण विशेष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International -
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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