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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 46 जिनप्रतिमाओं की पूजा करें। उसके बाद जिन-प्रतिमा को प्रदक्षिणा दें। फिर गुरू की प्रदक्षिणा करके "नमोऽस्तु-नमोऽस्तु" कहकर वंदन करें और हाथ जोड़कर इस प्रकार कहें - "हे भगवन् ! मैं उपनीत हूँ।" गुरू कहते हैं - "भलीभाँति उपवीत होओ"| पुनः उपनीत पुरूष "नमोस्तु-नमोस्तु" कहकर प्रणाम करते हुए इस प्रकार कहता है कि - "मेरा व्रत-बन्धन कर दिया गया है। गुरू कहते है- "तुम्हारा कल्याण हो।" पुनः शिष्य "नमोस्तु-नमोस्तु" कहकर प्रणाम करके इस प्रकार कहता है - "हे भगवन् ! मुझ पर व्रतारोपण हो गया है। गुरू कहते हैं - "भली भाँति किया हुआ हो, अर्थात् मंगलकारी हो।" पुनः शिष्य नमस्कार करके कहता है - "मैं ब्राह्मण, या क्षत्रिय, या वैश्य हो गया हूँ।" (सर्वप्रथम ब्राह्मण शिष्य हेतु) गुरू कहते हैं - "व्रत में दृढ़ बनो, सम्यक्त्व में दृढ़ बनो।' पुनः शिष्य नमस्कार करके कहता है - "हे भगवन् ! यदि आपने मुझे ब्राह्मण बना दिया है, तो मुझे करणीय कार्यों का आदेश दें।" गुरू कहते हैं - "तुम्हें मैं जिनवाणी का आदेश देता हूँ।" पुनः नमस्कार करके शिष्य कहता है - “हे ब्रह्मन् ! नवब्रह्मगुप्ति गर्मित रत्नत्रय का आदेश दें।" गुरू कहते हैं - "मैं आदेश देता हूँ। पुनः शिष्य कहता है- "क्या नवब्रह्मगुप्तिगर्भितरत्नत्रय का मुझे आदेश दिया गया है ? "गुरू कहते हैं - "हाँ आदेश दिया गया है। पुनः नमस्कार करके शिष्य कहता है - "क्या मुझे नवब्रह्मगुप्तिगर्भितरत्नत्रय का अच्छी तरह से आदेश दिया गया है। गुरू कहते हैं - "हाँ आदेश दिया गया है। पुनः नमस्कार करके शिष्य कहता है - "मुझे नवब्रह्मगुप्तिगर्भितरत्नत्रय का ज्ञान दें।" गुरू कहते हैं - "मैं ज्ञान देता हूँ।" पुनः शिष्य कहता है - "नवब्रह्मगुप्तिगर्भितरत्नत्रय की मुझे अनुज्ञा दें।" गुरू कहते हैं - "मैं अनुज्ञा देता हूँ।" पुनः शिष्य कहता है - "क्या नवब्रह्मगुप्तिगर्मितरत्नत्रय मेरे स्वयं के द्वारा करणीय है ?" गुरू कहते हैं - "करणीय है।" पुनः शिष्य कहता है - "क्या नवब्रह्मगुप्तिगर्भितरत्नत्रय को मैं अन्यों (दूसरों) को करवा सकता हूँ ?" गुरू कहते हैं - "करवा सकते हो।" पुनः शिष्य नमस्कार करके कहता है - " क्या नवब्रह्मगुप्तिगर्भितरत्नत्रय दूसरों को धारण कराने के लिए मैं अनुज्ञा दे सकता हूँ।" गुरू कहते हैं – “हाँ अनुज्ञा दे सकते हो।" यहाँ क्षत्रियों के व्रतबन्धन में ब्राह्मण के व्रतबन्धन से कुछ अन्तर है। (उसमें) शिष्य कहता है - "हे भगवन् ! मैं क्षत्रिय हो गया हूँ।" गुरू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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