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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 40 उपनयन करना चाहिए। गुरू एवं शुक्र नीच घर में एवं शत्रु घर में होने पर श्रुतविधि (अध्ययन) स्मृतिकर्म में हीन होती है। लग्न में बृहस्पति हो, त्रिकोण में शुक्र हो और शुक्रांश में चंद्रमा हो, तो जैन वेदवित् होता हैं। शुक्र सहित सूर्य लग्न में शनि के अंश में स्थित हो, तो सीखी हुई विद्या भूल जाते है, ऐसा कृतघ्न होता है। केन्द्र में बृहस्पति हो तो स्व-अनुष्ठान में रत होता है, प्रवर मतियुत होता है। शुक्र हो, तो विद्या, सौख्य एवं अर्थयुक्त होता है। बुध हो, तो अध्यापक होता है। सूर्य हो, तो राजा का सेवक होता है। मंगल हो, तो शूरवीर होता है। चंद्रमा हो, तो व्यापारी होता है। शनि हो, तो नीच जाति का सेवक होता है। शनि के अंश में मूर्खता का उदय होता है। सूर्य के अंश में क्रूरता होती है। मंगल के अंश में पापबुद्धि होती है, चंद्रांश में अतिजडता होती है, बुधांश में अतिपटु होता है, गुरू शुक्रांश में सुज्ञ होता है। सूर्य सहित बृहस्पति हो, तो निर्गुण होता हैं, अर्थ हीन होता है। मंगल सहित सूर्य हो, तो क्रूर होता है; बुध सहित हो, तो पटु होता है; शनि सहित हो, तो आलसी और निर्गुण होता है, चंद्र सहित शुक्र हो, तो अर्थहीन होता है। पूर्वोक्त निर्दोष नक्षत्रों में मंगलवार के अतिरिक्त शेष अन्य वारो में, दिनशुद्धि में, शुभग्रहयुक्त लग्न में विवाह के समान त्याज्य नक्षत्र-दिन का वर्जन करके ग्रह निर्मुक्त पाँचवे लग्न में व्रत को ग्रहण करें। सर्वप्रथम अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप उपनयन होने योग्य पुरूष को नौ, सात, पांच या तीन दिन तेल का मर्दन करवाकर स्नान कराएं। उसके पश्चात् लग्नदिन में गृहस्थ गुरू उसके घर आकर ब्रह्ममुहूर्त में पौष्टिककर्म करे। तत्पश्चात् उपनयन योग्य पुरूष के सिर पर शिखा को छोड़कर, शेष बालों का मुण्डन कराएं। तत्पश्चात् योग्य भू–भाग में वेदी स्थापित करें। मध्य में चौकी रखें। वेदी-प्रतिष्ठा आगे कथित विवाह अधिकार के समान ही बनाएं। गृहस्थ गुरू चौकी पर समवशरण के समान चतुर्मुख जिनबिंब की स्थापना करे। उनकी पूजा करके, गृहस्थ गुरू बिना सिले हुए श्वेतवस्त्र एवं उसी वस्त्र का उत्तरासंग किए हुए तथा अक्षत, नारियल और सुपारी को हाथ में लिए हुए उपनेय पुरूष से तीन प्रदक्षिणा कराएं। उसके बाद गुरू उपनेय पुरूष को वामपार्श्व में बैठाकर पश्चिमाभिमुख बिंब के सामने बैठकर प्रथम आर्हत्स्तोत्रयुक्त शक्रस्तव का पाठ करे। पुनः तीन प्रदक्षिणा देकर उत्तराभिमुख जिनबिंब के सामने उसी प्रकार (पूर्ववत) शक्रस्तव का पाठ करे। इसी प्रकार तीन-तीन प्रदक्षिणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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