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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर – 39 अधिकार नहीं है कि वह रत्नत्रय की आराधना के लिए दूसरों को उपदेश, या आज्ञा दे। अतः वैश्य एक सूत्रमय जिनउपवीत को धारण करता है। शूद्र ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय का स्वयं आचरण करने में अशक्त होता है, तो फिर कारण एवं अनुज्ञा की तो बात ही क्या ? क्योंकि वे अधम जाति के, बलहीन एवं अज्ञानी होते हैं, अतः उनको जिनाज्ञा भूत उत्तरीय वस्त्र धारण करने की अनुज्ञा है। उनसे भिन्न वणिक आदि को देव, गुरू, धर्म की उपासना के समय जिनाज्ञा रूप उत्तरासंग मुद्रा धारण करने की आज्ञा है। जिनउपवीत का स्वरूप इस प्रकार है - दोनों स्तनों के अन्तर के समरूप चौरासी धागों का एक सूत्र करें, फिर उसे त्रिगुण करें, पुनः उस त्रिगुण सूत्र का त्रिगुण करें, ऐसा एक तन्तु होता है। उसके साथ ऐसे दो तन्तु और जोड़े, इसका एक अग्र होता हैं। ब्राह्मण के तीन, क्षत्रिय को दो एवं वैश्यों को ऐसा एक अग्र धारण करने की व्यवस्था है। दूसरे मतों में इस प्रकार कहा गया है - "सत्युग में स्वर्ण का, त्रेतायुग में चांदी का सूत्र करते थे, द्वापर युग में ताँबे का एवं कलियुग में कपास का सूत्र बताया गया है। जिनमत में तो ब्राह्मणों को हमेशा स्वर्ण-सूत्र एवं क्षत्रिय और वैश्यों को कपास के सूत्र को ही धारण करने के लिए कहा गया है। यह जिन उपवीत की विधि है। अब उपनयन विधि का वर्णन किया जा रहा है - "जो क्रमारोह की युक्ति से प्राणी को वर्ण-पुष्टि (पूर्णता) तक ले जाए, वह उपनयन है। इस उपनयन (जिन-उपवीत) का श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, मृगशीर्ष, अश्विनी, रेवती, स्वाति, चित्रा, पुनर्वसु तथा मृगशिर, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, स्वाति, चित्रा, पुष्य और अश्विनी नक्षत्रों में धारण एवं मोचन किया जाता है।" - ऐसा आचार्यों का कथन है। ब्राह्मणों में गर्भाधान से, अथवा जन्म से आठवें वर्ष में मौन्जीबन्ध करने का विधान है। क्षत्रियों में ग्यारहवें वर्ष में एवं वैश्यों को बारहवें वर्ष में वेदाध्ययन रूप उपनयन करने का विधान है। वर्ण के स्वामी के बलवान् होने पर उपनयन-क्रिया करना उपयुक्त होता है। उस समय व्यक्ति के गुरू, चन्द्र और सूर्य बलशाली होना चाहिए। ब्राह्मणों में उपनयन करने के लिए यह विधान हैं, जब शाखा का स्वामी ग्रह बली हो, या केन्द्रगत हो एवं निर्दिष्ट वार हो, तब उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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