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षोडश संस्कार
आचार दिनकर
"विप्रों के लिए अग्नि में देवता है, योगियों के लिए हृदय में देवता है और जो अल्पबुद्धि, अर्थात् गृहस्थधर्मी श्रावकादि हैं, उनके लिए भगवान् की प्रतिमा ही देव है ।
अतः यति ( मुनि) शिखा एवं सूत्र को छोड़कर भी नवब्रह्मगुप्ति से युक्त रत्नत्रय का करण, कारण और अनुमति तीनों प्रकार से सदैव आदर करते हैं। गृही ब्रह्मगुप्ति से युक्त रत्नत्रय का श्रवण एवं स्मरण कर तथा उन्हे अंशतः ग्रहण कर ब्रह्मगुप्त रूप रत्नत्रय को सूत्रमुद्रा के द्वारा हृदय पर धारण करते हैं ।
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"प्रतिमास्वल्पबुद्धिना" इस वचन से तादाम्य - तदात्म रूप न होने से मुद्रा धारण की जाती है, जैसे छद्मस्थ द्वारा बाह्य - आभ्यन्तर तपःकर्म तथा नवतन्तुगर्भित त्रिसूत्र में से आगे का एक सूत्र ग्रहण करना ।
इसी प्रकार विप्र को नवतंतुगर्भित सूत्रमय एक अग्र-ऐसे तीन अग्र, क्षत्रिय को प्रथम के दो अग्र, वैश्य को प्रथम एक अग्र, शूद्र को उत्तरीय वस्त्र एवं अन्य अर्थात् वणिक आदि हेतु उत्तरासंग की अनुज्ञा है। इस प्रकार की व्यवस्था क्यों है ? तो इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि ब्राह्मणों के लिए नवब्रह्मगुप्त ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप रत्नत्रय स्वयं करणीय है, दूसरों से कराने योग्य है । ब्रह्मगुप्ति से गुप्त ब्राह्मण सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक् चारित्र के द्वारा रत्नत्रयी का स्वयं आचरण करते हैं, दूसरों को अध्यापन द्वारा सम्यक्त्व का उपदेश देकर एवं आचार - प्ररूपणा द्वारा उसका पालन कराते हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और धर्म-उपासना के द्वारा श्रद्धावान् तथा अनुज्ञा प्रार्थी श्रद्धावंतो को उसका पालन कराने की अनुज्ञा देते हैं।
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इसलिए नवब्रह्मगुप्त गर्भित रत्नत्रय को करना, कराना और अनुमोदना (अनुज्ञा ) सहित धारण करने के कारण ब्राह्मणों के जिन - उपवीत में आगे के त्रिसूत्र होते हैं । क्षत्रिय रत्नत्रय का स्वयं आचरण करते हैं एवं अपनी शक्ति से तथा न्याय की प्रवृत्ति से दूसरों को भी रत्नत्रय के आचरण की प्रेरणा देते हैं, पर दूसरों को अनुज्ञा (आदेश) नहीं दे सकते। वे प्रभुत्वशाली होते हैं, पर दूसरों को नियम हेतु बाध्य नहीं कर सकते, अतः क्षत्रिय को आगे के दो सूत्र युक्त जिनउपवीत को धारण करने का विधान है ।
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वैश्य ज्ञान एवं भक्ति से सम्यक्त्व को ग्रहण कर अपनी शक्ति के अनुरूप उपासक के आचार का स्वयं आचरण करता है । उसका यह
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