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षोडश संस्कार
आचार दिनकर – 37 ब्राह्मणकुलों में अतीत में आए हैं, वर्तमान में आते हैं और भविष्य में आएंगे, अर्थात् उक्त हीनादि कुलों वाली माताओं की कुक्षि में गर्भरूप में अतीत में उत्पन्न हुए हैं, वर्तमान में उत्पन्न होते हैं और भविष्य में उत्पन्न होंगे, परन्तु उक्त निम्नकुलों वाली माताओं के उदर (योनि) से अरहंतादि ने न कभी जन्म लिया है, न कभी जन्म लेते हैं और न कभी जन्म लेंगे।
तो अतीतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल के शक्र देवेन्द्र देवराजों का यह जीताचार-कर्त्तव्य है कि वे अरहंत भगवान् को तथा प्रकार के अन्त्यकुलों, प्रान्तकुलों, तुच्छकुलों, दरिद्रकुलों, भिक्षुककुलों और कृपणकुलों से हटाकर तथा अन्य प्रकार के उग्रकुलों, भोगकुलों, राजन्यकुलों (ज्ञातृकुलों), क्षत्रियकुलों, हरिवंशकुलों अथवा तथा प्रकार के अन्य भी विशुद्ध जाति, कुल और वंशों में स्थापित करें। अतः मेरे लिए यह निश्चित रूप से श्रेयस्कर है कि पूर्व तीर्थकरों द्वारा निर्दिष्ट, श्रमण भगवान् महावीर चरम तीर्थंकर (जीव) को माहणकुण्डग्राम नामक नगर से कोडालगोत्रीय ऋषभदत्त ब्राह्मण की भार्या जालन्धर गोत्रीया देवानंदा की कुक्षि से (सहृतकर) क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर में ज्ञातवंशीय काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थ क्षत्रिय की पत्नी वशिष्ठ गोत्रीया त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में गर्भरूप में संचारित-स्थापित करूं।
इस प्रकार वे क्षत्रिय कुल भी श्रेष्ठ होने से उपनयन के योग्य होते हैं। ऐसा माना जाता है कि वैश्यों में कार्तिक सेठ एवं कामदेव आदि श्रावकों ने भी जिनउपवीत को धारण किया था, शूद्रों में भी कुम्भकार आनंद आदि ने श्रावकव्रत ग्रहण कर उत्तरीय वस्त्र को धारण किया था। शेष वणिक, कारू आदि को उत्तरासन धारण करने की आज्ञा है।
जिनोपवीत-जिनेश्वर भगवान् की गार्हस्थ्य मुद्रा है, अतः सर्व बाह्य-आभ्यन्तर कर्मों से विमुक्त निर्ग्रन्थ यतियों का नवब्रह्मगुप्ति से संरक्षित तथा हृदयस्थिति नवब्रह्मगुप्ति से युक्त होने से उन्हें रत्नमय सूत्र रूप उपवीत को वहन करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि वे तत्स्वरूप हैं।
जैसे समुद्र को हाथ में जलपात्र को धारण करने की आवश्यकता नहीं होती, सूर्य को दीपक की आवश्यकता नहीं होती है, वैसे ही निर्ग्रन्थ मुनियों को जिन-उपवीत धारण करना आवश्यक नहीं है। जैसा कि कहा गया है कि -
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