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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 36 // बारहवाँ उदय // उपनयन संस्कार-विधि
उपनयन नामक संस्कार मनुष्यों के वर्ण विशेष में प्रवेश कर, तदनुरूप वेश एवं मुद्रा धारण करने के लिए तथा अपने-अपने गुरू के द्वारा उपदिष्ट धर्म–मार्ग में प्रवेश करने के लिए किया जाता है। जैसे आगम में कहा गया हैं - "धर्माचार में और चारित्र-पालन में वेश प्रथम कारण है। संयम एवं लोक-लज्जा के हेतु श्रावक एवं साधुओं के लिए वेश आवश्यक है। धर्मदासगणि ने उपदेशमाला में कहा है कि -
"वेश धर्म की रक्षा करता है। वेश से "मैं दीक्षित हूँ" -- इस प्रकार का मन में विचार कर लज्जित होता है। जैसे राजा जनपद की रक्षा करता है, उसी प्रकार उन्मार्ग में जातें हुए व्यक्ति की वेश रक्षा करता है।"
इक्ष्वाकुवंश, नारदवंश, प्राच्यवंश, औदीच्यवंश आदि के जैन ब्राह्मण उपनयन और जिन उपवीत को धारण करें तथा क्षत्रिय वंश में उत्पन्न जिनों, चक्रवर्तियों, बलदेव एवं वासुदेवों की तथा श्रेयासकुमार, दशार्णभद्रादि राजाओं एवं हरिवंश, इक्ष्वाकुवंश, विद्याधरवंश आदि में उत्पन्न होने वालो की उपनयन या जिनोपवीत धारण की विधि हैं।
जैसा कि आगम में कहा गया है -
"हे देवानुप्रिया अतीत में न कभी ऐसा हुआ है, वर्तमान में न कभी ऐसा होता है और न ही कभी भविष्य में ऐसा होगा। अरहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव अन्त्यकुलों, हीनकुलों, प्रान्तकुलों, अधमकुलों, तुच्छकुलों, दरिद्रकुलों, कृपणकुलों, भिक्षुककुलों, माहण् अर्थात् ब्राह्मणकुलों में न कभी आए हैं, न कभी आते हैं और न कभी आएंगे। इस प्रकार निश्चय ही अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, उग्रवंशीयकुलों, भोगवंशीयकुलों, राजन्यकुलों, इक्ष्वाकुवंशीयकुलों, क्षत्रियकुलों, हरिवंशीयकुलों तथा इसी प्रकार के अन्य भी विशुद्ध कुल तथा विशुद्ध वंश वाले कुलों में उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे, किन्तु लोक में इस प्रकार की आश्चर्यजनक घटना भी अनंत उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के व्यतीत हो जाने के पश्चात घटित होती है, जबकि नीच नाम और गोत्रकर्म के क्षय न होने से, इन कर्मों की निर्जरा नहीं होने से तथा इन कर्मों के उदय में आने पर अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, अन्त्यकुलों, प्रान्तकुलों, तुच्छकुलों, दरिद्रकुलों, भिक्षुककुलों, कृपणकुलों,
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