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षोडश संस्कार
आचार दिनकर – 33 अनुसार किसी अन्य ग्राम में, कुल देवता के स्थान पर, पर्वत पर, नदी के किनारे अथवा घर में कर्णवेध संस्कार की क्रिया करें।
__वहाँ मोदक, नैवेद्य आदि बनाने का कार्य, गीत-गान आदि मंगलाचार एवं अन्य सब कार्य अपने कुलाचार के अनुरूप ही करें। उसके बाद बालक को सुखासन में पूर्वाभिमुख बैठाकर उसका कर्णछेदन, अर्थात् कर्णवेध किया जाए । उस समय गृहस्थ गुरू निम्न वेदमंत्र बोले -
"ऊँ अर्ह तेनांगैरूपांगैः कालिकैरूत्कालिकैः पूर्वगतैश्चलिकाभिः परिकर्मभिः सूत्रैः पूर्वानुयोगैः छन्दोभिर्लक्षणैर्निरूक्तैर्धर्मशास्त्रौर्विद्धकर्णो भूयात् अर्ह ऊँ।।"
शूद्र यह मंत्र बोले - "ऊँ अर्ह तव श्रुतिद्वयं हृदयं धर्माविद्धमस्तु।"
उसके बाद बालक को वाहन में बैठाकर अथवा नर-नारी गोद में बैठाकर उपाश्रय में ले जाएं। वहाँ पूर्व में बताई गई विधि के अनुरूप मण्डली-पूजा आदि करके शिशु को यतिगुरू के चरणों के आगे लेटा दें। यतिगुरू विधिपूर्वक वासक्षेप डाले। फिर वहाँ से बालक को उसके घर ले जाकर गृहस्थ गुरू कर्ण आभरण पहनाए। यतिगुरू को चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र आदि का दान करें और गृही गुरू को वस्त्र एवं स्वर्ण का दान
दें।
कर्णवेध के लिये पौष्टिक-कर्म के उपकरण, कुलोचित मातृपूजा एवं अन्य वस्तुओं की व्यवस्था विचक्षण व्यक्ति द्वारा अवश्य की जानी चाहिए।
इस प्रकार आचार्य वर्धमानसूरि प्रतिपादित आचारदिनकर में गृहिधर्म का कर्णवेध-संस्कार नामक दसवाँ उदय समाप्त होता है।
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