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षोडश संस्कार
आचार दिनकर -
/ / दसवाँ उदय / / कर्णवेध - संस्कार - विधि
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वर्धमानसूर के अनुसार कर्णवेध संस्कार के लिए उत्तरात्रय, अर्थात् उत्तराषाढ़ा, उत्तराफाल्गुनी और उत्तराभाद्रपद, हस्त, रोहिणी, रेवती, श्रवण, पुनर्वसु, मृगशीर्ष एवं पुष्य नक्षत्र शुभ कहे गए हैं। रेवती, श्रवण, हस्त, अश्विनी, चित्रा, पुष्य, धनिष्ठा, पुनर्वसु, अनुराधा इन नक्षत्रों में चन्द्रमा का योग होने पर ही कर्णवेध करें। ग्यारहवें एवं तीसरे स्थान में शुभ ग्रहों के संयुक्त होने पर शुभ राशि तथा लग्न में क्रूर ग्रहों के न होने पर बृहस्पति के लग्नाधिप या लग्न में होने पर कर्णवेध करें। पुष्य, चित्रा, श्रवण और रेवती - ये चंद्र नक्षत्र कहे गए हैं। क्रूर योग से रहित तृतीय स्थान का लाभ होने पर शुभराशिलग्न तथा देवलग्न में पुष्य, चित्रा, अश्विनी एवं पुष्य नक्षत्र में कर्णवेध करना चाहिए ।
रवि, मंगल, गुरु, शुक्र आदि शुभ वारों में तथा श्रेष्ठ तिथि होने पर एवं शुभ योग होने पर शिशु का कर्णवेध संस्कार करना चाहिए। इस प्रकार निर्दोष वर्ष, मास, तिथि, वार, नक्षत्र होने पर शिशु के रवि चन्द्र बल में ही कर्णवेध संस्कार किया जाता है। जैसा कि कहा गया है गर्भाधान, पुंसवन, चन्द्र-सूर्य दर्शन, क्षीराशन, षष्ठी, शुचिकर्म, नामसंस्कार, अन्नप्राशन आदि संस्कार आवश्यक कार्य होने से पंडित पुरूषों ने इसके लिए वर्ष, मासादि की शुद्धि का निषेध किया है, अर्थात् उसे न देखें मात्र निश्चित मास या दिन में शुभ मुहुर्त का विचार करे। संस्कारों मे कुछ संस्कार तो विवाह के समान होते हैं, अतः उनमें भी विवाह की तरह शुद्ध वर्ष, मास, दिन आदि देखते हैं। कर्णवेध हेतु तीसरा, पांचवा, सातवाँ वर्ष निर्दोष है। इसमें भी जिस मास में शिशु का सूर्य बलवान् हो, उस मास में गुरूवार आदि शुभ दिनों में अमृतमंत्र द्वारा जल को अभिमंत्रित करें । उस अभिमंत्रित जल से सधवा स्त्रियाँ मंगलगीत गाते हुए शिशु एवं उसकी माता को स्नान कराएं। यहाँ कुल - आचार के अनुसार विशेष तेल मर्दन कराकर तीसरे, पाँचवें, नवें तथा ग्यारहवें दिन यह स्नान किया जाता है ।
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फिर गृहस्थ गुरू उसके गृह में पौष्टिककर्म अधिकार के अनुरूप पौष्टिक की सर्व विधि करे। षष्ठी माता को छोड़कर आठ माताओं की पूर्वानुसार पूजा करे । उसके पश्चात् अपने - अपने कुल की परम्परा के
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