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षोडश संस्कार
आचार दिनकर जिनेश्वर को नमस्कार करे। माता चतुर्विंशति परिमाण से, अर्थात् चौबीस - चौबीस की संख्या में स्वर्ण एवं चांदी की मुद्राएँ, चौबीस नारियल आदि जिन - प्रतिमा के सम्मुख चढ़ाए ।
उसके बाद परमात्मा के आगे कुलवृद्धाएँ शिशु का नाम प्रकट करें या कहें। गाँव या नगर में मंदिर का अभाव होने पर गृह - प्रतिमा के सम्मुख इसी प्रकार की विधि करें। उसके बाद वहाँ से पौषधशाला में आएं। वहाँ प्रवेश करके भोजन - मण्डली के स्थान पर मण्डली - पट्ट को स्थापित कर उसकी पूजा करें। मण्डली - पूजा की विधि इस प्रकार है शिशु की माता "श्री गौतमाय नम:" इन शब्दों का उच्चारण कर गन्ध, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य से मण्डली - पट्ट की पूजा करे । मण्डली - पट्ट पर दस स्वर्ण मुद्राएँ एवं दस चाँदी की मुद्राएँ, दस सुपारी, 108 नारियल, 29 हाथ परिमाण का वस्त्र स्थापित करे । उसके बाद स्त्री पुत्र सहित साधुओं को तीन प्रदक्षिणा करके नमस्कार करे। सोने-चांदी की मुद्राओं से यति गुरू (साधु) के नवांग की पूजा करे। अक्षत से बधाकर और आरती उतारकर क्षमाश्रमण पूर्वक हाथ जोड़कर शिशु की माता “वासक्षेप करे "
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इस प्रकार कहे । उसके बाद यति गुरू वासक्षेप को ऊँकार - ह्रींकार - श्रींकार सन्निवेश के द्वारा अभिमन्त्रित कर कामधेनु मुद्रा से वर्धमानविद्या का जाप करते हुए माता एवं पुत्र - दोनों के सिर पर वासक्षेप डाले । वासक्षेप डालते समय भी उन दोनों के सिर पर ॐ ह्रीं श्रीं अक्षर का सन्निवेश करे ।
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उसके बाद बालक को चन्दन का तिलक करके, अक्षत लगाकर, कुलवृद्धा के वचन के अनुवाद से शिशु का नामकरण करे। तत्पश्चात् उसी विधि से सभी को साथ लेकर अपने घर लौटे। यतिगुरू को चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र आदि का दान दें एवं गृहिगुरू को वस्त्र, अलंकार, स्वर्ण आदि का दान दें ।
नान्दी एवं मंगलगीत, गृहस्थ गुरू, ज्योतिषी, प्रचुरमात्रा में फल, मुद्रा, विविध वस्त्र, वासक्षेप, चन्दन, दूब, नारियल आदि सब वस्तुएँ नामकरण - संस्कार - कार्य में परमावश्यक हैं।
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इस प्रकार वर्धमानसूरि प्रतिपादित आचारदिनकर में गृहिधर्म का नामकरण - संस्कार नामक यह आठवाँ उदय समाप्त होता है ।
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