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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 23 // छठा उदय // षष्ठी-संस्कार–विधि
प्रसव के छठे दिन गुरू प्रसूतिगृह में आकर षष्ठी-पूजन की विधि प्रारंभ करे। वहाँ सूतक का कोई मतलब नहीं है, जैसा कि श्लोक है -
__ "अपने कुल में, तीर्थ के मध्य में एवं आवश्यक कार्य होने पर और षष्ठी पूजन में सूतक की गणना (मान्य) नहीं होती है।"
इस संस्कार-विधि के अनुसार सूतिकागृह के भित्ति-भाग एवं भूमि-भाग पर सधवा स्त्रियाँ अपने हाथों से गोबर का लेप करे, अर्थात् ली। उसके पश्चात् शुक्रवार, बृहस्पतिवार आदि शुभ वार देखकर चारों दिशाओं के कोने वाले भाग एवं भित्ति-भाग को खड़ियाँ मिट्टी (सफेद मिट्टी) आदि से सफेद करके उस भूमि-भाग को (धरातल) चारों तरफ से सुशोभित करें। उसके बाद भित्ति के उस सफेद भाग पर सधवा स्त्रियाँ हाथों से कुंकुम, हिंगुल आदि लाल वर्गों से आठ खड़ी हुई माताओं (देवियों) का, आठ बैठी हुई माताओं का एवं आठ सोई हुई माताओं का आलेखन करें। कहीं-कहीं कुल-परम्परा एवं गुरू-परम्परा के अनुसार छ:-छ: माताओं के आलेखन का भी विधान है।
उसके बाद सधवा स्त्रियों द्वारा मंगलगीत गाए जाने पर गुरू चतुष्क (चौकोर) शुभ आसन पर बैठकर उक्त क्रम से माताओं की मंत्रपूर्वक पूजा करे। यहाँ नलिखक्ओ (?) इस प्रकार उल्लेख मिलता है, जिसका लेखक ने स्वयं भी स्पष्टीकरण नहीं किया है। पर शायद पूर्व के सन्दर्भ से ऐसा लगता है कि, यह आह्वान-मंत्र ऐसा लिखा होगा, क्योंकि आगे आह्वान-मंत्र भी दिया गया है -
"ऊँ ह्रीं नमो भगवति ब्रह्माणि वीणापुस्तकपद्माक्षसूत्रकरे हंसवाहने श्वेतवर्णे इह षष्ठीपूजने आगच्छ आगच्छ स्वाहा।।"
इस मंत्र का तीन बार पाठ करके पुष्प से आह्वान करे। पश्चात् -
"ऊँ ह्रीं नमो भगवति ब्रह्माणि वीणापुस्तकपद्माक्षसूत्रकरे हंसवाहने श्वेतवर्णे मम सन्निहिता भव भव स्वाहा ।।"
इस मंत्र से तीन बार संनिधान करे। पुनः इसी मंत्र का पाठ कर तीन बार तिष्ठ-तिष्ठ ऐसा कहकर उनकी स्थापना करे।
उसके बाद गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य प्रदान करते हुए मंत्र-पाठ पूर्वक
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