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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 17 // तीसरा उदय // जन्म-संस्कार-विधि
गर्भकाल के अपेक्षित मास-दिन आदि की कालावधि पूर्ण होने पर गुरू, ज्योतिषी सहित एकान्त एवं शोरगुलरहित तथा जहाँ स्त्रियों बालकों आदि का आवागमन न हो एवं सूतिका–गृह के अत्यन्त समीप हो, ऐसे स्थान पर घटिका पात्र रखकर सावधानीपूर्वक पंचपरमेष्ठी के जाप में निरत रहे तथा तिथि, वार, नक्षत्र आदि का पहले से विचार नहीं करे।
जीव का जन्म तो कर्मानुसार कालावधि पूर्ण होने पर ही होता है। जन्म, मृत्यु, धन, दौस्थयं (रूग्णता) अपने-अपने समय पर प्रवर्तित होते हैं, अतः इस विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है ? आगम में भी वर्द्धमानस्वामी ने कहा है कि "जन्मकाल एवं मृत्युकाल अपने समय पर होते हैं। उनके होने पर वीतराग को कोई आश्चर्य नहीं होता है।"
बालक के होने पर गुरू समीप में स्थित ज्योतिषी को जन्म-समय का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए निर्देश दे। वह ज्योतिषी भी सही जन्मकाल को हाथ पर गिनकर निर्धारित करे। उसके बाद बालक के पिता, चाचा, दादा जब तक नाल अखण्ड रहे (उस बीच में) गृहस्थगुरू एवं ज्योतिषी को बहुत से वस्त्र, आभूषण एवं वित्त आदि दें। नाल छिन्न होने पर सूतक प्रारम्भ हो जाता है। गृहस्थगुरू बालक, उसके पिता, दादा आदि परिवारजनों को निम्न मंत्र से आशीर्वाद दे -
"ऊँ अहं कुलं वो वर्द्धतां सन्तु शतशः पुत्रपौत्रप्रपौत्राः अक्षीणमस्त्वायुर्द्धनं यशः सुखं च, अहँ ऊँ।।"
यह वेद का आशीर्वाद है। जैसा कि कहा गया है - "मेरू पर्वत पर देवों एवं असुरों के स्वामी इन्द्र अपने समूह सहित कुंभ के अमृतजल से जिनको स्नान कराते हैं, ऐसे आदिदेव (तुम्हारे) कुल का वर्धन करें।"
इसी प्रकार ज्योतिषी भी आशीर्वाद दे -
"सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र, शनि, राहु, केतु आदि ग्रहों में श्रेष्ठ ग्रह तुम्हारी रक्षा करें। अश्विनी आदि नक्षत्र और उसके अतिरिक्त मेष आदि राशियाँ शिशु का कल्याण करें और परिवारजनों की, अर्थात् परिवार के सदस्यों की वृद्धि करें।"
उसके बाद ज्योतिषी जन्म-लग्न बताकर अपने घर चला जाए।
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