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षोडश संस्कार
// दूसरा उदय / / पुंसवन संस्कार की विधि
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गर्भ के आठ मास व्यतीत हो जाने पर, सर्व दोहद पूर्ण हो जाने पर, गर्भस्थ शिशु के सम्पूर्ण अंग - उपांग पूर्णतः विकसित हो जाने पर शरीर में पूर्णी भाव प्रमोदरूप स्तनों में दूध की उत्पत्ति का सूचक पुंसवन कर्म करना चाहिए ।
आचार दिनकर
इसके लिए शुभ नक्षत्र एवं दिन इस प्रकार बताए गए हैं :
मूला, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, मृगशीर्ष और श्रवण नक्षत्र तथा मंगल, गुरू एवं रविवार पुंसवन कर्म के लिए उचित माने गये हैं। छठें मास में अथवा आठवें मास में भी यदि उसके स्वामी, अर्थात् पति को अभुक्त पुरूष लग्न हो, तो यह विधि की जाना इष्ट है। इसी प्रकार पापकारक द्वादश मृत्युयोग से रहित बुद्धि और धर्म के स्वामी, देवताओं के गुरू बृहस्पति के चतुर्थ स्थान में होने पर भी मुनिजन, सीमंतकर्म (पुंसवन संस्कार ) की अनुमति देते हैं। रिक्ता, दुग्धा, क्रूरा, अहस्पृश्या (तीन दिन का स्पर्श करने ये वाली) एवं अवमा तिथियाँ तथा षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी और अमावस्या तिथियाँ इस पुंसवन - कर्म हेतु वर्जित मानी गयी हैं। गण्डांत, उपहत ( क्षत-विक्षत) आदि अशुभ नक्षत्रों का भी त्याग करके पूर्व में कहे गए नक्षत्र और वार में पति के चंद्रबल में पुंसवन - कार्य शुरू करना चाहिए । इस संस्कार की विधि इस प्रकार है गृहस्थगुरू पूर्व में, अर्थात् गर्भाधान संस्कार के प्रसंग में बताए गए अनुसार वेश को धारण करे । गर्भवती स्त्री ने पति की उपस्थिति में, या उसकी अनुपस्थिति में गर्भाधान-कर्म के समय जिस वेश को धारण किया था, उसे वैसे ही वेश को धारण कराए तथा वैसी ही कबरी - बन्ध (केश-सज्जा ) किए हुए उस स्त्री को रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जिस समय गगन में तारे हों, उस समय श्रृंगारित, सधवा स्त्रियों के द्वारा मंगलगान गाते हुए तेलमर्दन और उबटन लगाकर जल से अभिषिक्त करे, अर्थात् स्नान कराए ।
उसके बाद प्रभात होने पर भव्य वस्त्र, गन्धमाला, आभूषणों से भूषित उस गर्भिणी की उपस्थिति में उसका पति, देवर अथवा उस कुल का कोई व्यक्ति, या विधिकारक गुरू स्वयं गृह में स्थित अर्हत् परमात्मा की प्रतिमा को पंचामृत से बृहत्स्नात्र विधिपूर्वक स्नान कराए ।
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