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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 13 आर्यवेद और जैन ब्राह्मण उदभव कथा : आदिनाथ के पुत्र प्रथमचक्री भरत' ने अवधिज्ञानी ऋषभदेव के रहस्यमय उपदेश से सम्यक् श्रुतज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्होंने सांसारिक व्यवहार रूप संस्कारों की स्थिति के लिए अर्हत् का निर्देश पाकर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय का त्रिकरण से पालन करने वाले तथा त्रिरत्नों का प्रतीक त्रिसूत्र वक्षःस्थल पर धारण करने वाले ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि की। तत्पश्चात् उन्होंने वैक्रिय लब्धि द्वारा चतुर्मुख होकर चार वेदों का उच्चारण किया। वह इस प्रकार है : 1. संस्कार-दर्शन 2. संस्थान-परामर्श 3. तत्त्वावबोध और 4. विद्या-प्रबोध सर्व नयों से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले ये चारों वेद माहणों (जैन ब्राह्मणों) को पढ़ाए गए। वे ब्राह्मण सात तीर्थंकरों के तीर्थकाल तक सम्यक्त्व को धारण करते हुए अर्हतो के द्वारा प्रतिपादित धर्म देशना और व्यवहार का उपदेश देते थे। उसके पश्चात् तीर्थ का व्यवच्छेद होने पर उन ब्राह्मणों ने लोभ के वशीभूत होकर साधुओं की, अर्थात् श्रमणों की निंदा करने वाले एवं हिंसा की प्ररूपणा करने वाले ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नामक वेदों की कल्पना अपनी मिथ्यादृष्टि के आधार पर की। उसके पश्चात् श्रमणों ने भी श्रमण-व्यवहार से पराङ्मुख इन वेदों को छोड़कर जिन-प्रणीत आगम की प्रमाणता को स्थापित किया। उनमें से भी जिन ब्राह्मणों ने सम्यक्त्व का त्याग नहीं किया था, ऐसे माहनों के मुखों में आज भी भरत-प्रणीत वेद आंशिक रूप से विभिन्न कर्मकांडों एवं व्यवहारों में प्रचलित रहे हैं, ऐसा सुना जाता है और वही यहाँ बताया गया है। आगम में भी कहा गया है - शुभ ध्यान और व्यवहार के लिए माहनों के पठनार्थ भरतचक्रवर्ती ने आर्य वेदों को विश्रुत किया था। जिन तीर्थ के व्यवछिन्न हो जाने पर मिथ्यामति ब्राह्मणों (माहनों) द्वारा स्थापित किये गये इन वेदों को असंयति जनों ने अपनी पूजा के लिए प्रसिद्ध किया। 1. आचारदिनकर की मूल प्रति में भरत को अवधिज्ञानी बताया है, यह बात कुछ युक्ति संगत नहीं लगती, क्योंकि आगमों में ऐसा कही उल्लेख नहीं मिलता कि चक्रवर्ती अवधिज्ञानी होते ही हैं। इसलिए यह विशेषण ऋषभदेव के लिये ही होगा, ऐसा हम मान सकते हैं और वो युक्तिसंगत भी है, क्योंकि तीर्थकर परमात्मा जन्म से तीन ज्ञान के धनी होते हैं और ऋषभदेव ने ही लोगो को सामाजिक व्यवहार से अवगत कराया था, ऐसे उल्लेख भी अनेक ग्रंथों में मिलते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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