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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर 12 विवाह को छोड़कर सर्वत्र इसी मंत्र के द्वारा दंपत्ति का ग्रन्थि - बंधन कराना चाहिए। उसके बाद गृहस्थ गुरू उसके सामने शुभपादपीठ पर पद्मासन में बैठकर मणि, स्वर्ण, चांदी एवं ताम्रपत्र के पात्रों में परमात्मा के स्नात्र जल सहित तीर्थोदक को रखकर आर्यवेदमंत्र का उच्चारण करते हुए कुशाग्र से या पत्ते से गर्भिणी को जल से सिंचित करें। वह आर्यवेदमंत्र इस प्रकार है : "ॐ अर्ह जीवोऽसि जीवतत्त्वमसि प्राण्यसि, प्राणोऽसि, जन्म्यसि, जन्मवानसि संसार्यसि, संसरन्नसि, कर्मवानसि कर्मबद्धोऽसि, भवभ्रान्तोऽसि, भव संबिभ्रमिषुरसि पूर्णांगोऽसि, पूर्णपिण्डोऽसि, जातोपांगोऽसि, जायमानोपांगोऽसि, स्थिरो भव, नन्दिमान् भव, वृद्धिमान् भव, पुष्टिमान् भव ध्यानजिनो भव, ध्यातसम्यक्त्वो भव, तत्कुर्या न येन पुनर्जन्मजरामरणसंकुलं संसारवासं गर्भवासं प्राप्नोषि अर्ह ऊँ" इस मंत्र में दाएँ हाथ में धारण किए गये तीर्थ जल को लेकर सात बार गर्भिणी के सिर एवं शरीर पर अभिसिंचित करे। उसके बाद पंच परमेष्ठी मंत्र का पाठ करते हुए दंपत्ति को आसन से उठाकर फिर उन्हें जिनप्रतिमा के समीप ले जाकर शक्रस्तव ( नमुत्थुणं) से जिनवंदन कराए। यथाशक्ति फल, वस्त्र, मुद्रा, मणि, स्वर्ण आदि जिनप्रतिमा के सन्मुख चढ़ाए। उसके बाद गर्भवती स्त्री विधिकारक गुरु को स्वसंपत्ति में से वस्त्र, आभरण, मुद्रा, स्वर्णादि का दान दे। उसके बाद गुरू पतिसहित गर्भवती स्त्री को इस प्रकार आशीर्वाद दे : "ज्ञानत्रयं गर्भगतोऽपि विन्दन् संसारपारैक निबद्धचित्तः । गर्भस्य पुष्टिं युवयोः च तुष्टिं युगादिदेवः प्रकरोतुनित्यम् ।।" उसके बाद उन्हें आसन से उठाकर ग्रन्थि का विमोचन करे । ग्रन्थि विमोचन का मंत्र इस प्रकार है : "ॐ अर्ह ग्रन्थौ वियोज्यमानेऽस्मिन् स्नेहग्रन्थिः स्थिरोऽस्तु वा । शिथिलोऽस्तु भवग्रन्थिः कर्मग्रन्थिदृढ़ी कृतः ।।" इस मंत्र के द्वारा ग्रन्थिमोचन कर उपाश्रय में ले जाकर दंपत्ति (के द्वारा) से सुसाधु गुरू को वन्दन कराएं और साधुओं को निर्दोष भोजन, वस्त्र, पात्र आदि का दान दिलाएं। यह गर्भाधान संस्कार की विधि है । उसके बाद अपने कुलाचार की विधि से कुलदेवता, गृहदेवता, नगरदेवतादि का पूजन करें। यहाँ जो भी मंत्र कहे गए हैं, वे जैन वेदमंत्र हैं, उन्हीं का यहाँ प्रतिपादन किया गया है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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