________________
षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 7 छब्बीसवें उदय में व्रतधारियों (मुनियों) द्वारा प्रतिमाओं के वहन करने की प्रक्रिया का वर्णन है।
सत्ताईसवें उदय में साध्वियों की व्रतारोपण, अर्थात् प्रव्रज्या विधि का वर्णन है।
अट्ठाईसवें उदय में प्रवर्तिनी-पद पर स्थापना की विधि बताई गई
उनतीसवें उदय में महत्तरा-पद पर स्थापना की विधि एवं महत्तरा के गुणों का निर्देश किया गया है।
तीसवें उदय में साधु-साध्वियों की दिन एवं रात्रि की क्रियाओं का एवं उनके उपकरणों का वर्णन है।
एकतीसवें उदय में साधु-साध्वियों की ऋतुचर्या का तथा विहार व लोच की विधि का स्पष्टीकरण किया गया हैं।
बत्तीसवें उदय में मुनि-मरणोत्तर क्रिया-विधि का वर्णन है।
तेंतीसवें उदय में चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, जलाशय, कूप आदि की प्रतिष्ठा-विधि का विवेचन है। इसमें सभी देवो के आह्वान, स्थापना और पूजा की विधि भी दी गई है। साथ ही इसमें बृहत् स्नात्रपूजा-विधि, नन्द्यावर्त आदि की पूजा विधि, कंकणछोटन-विधि, अष्टमंगल पूजा विधि एवं तत्संबंधी पूजा-सामग्री हेतु 360 क्रियाणकों की सूची, व्यग्नि आदि का विवेचन है। ____ चौतीसवें उदय में सभी प्रकार के पूजान्वित शान्तिक-कर्म की विधि तथा मूलादि नक्षत्रों एवं ग्रहों की शान्ति की विधि बताई गई है।
पैंतीसवें उदय में पौष्टिक कर्म की विधि का विधान है। छत्तीसवें उदय में बलिकर्म की विधि बताई गई है।
सेंतीसवें उदय में प्रायश्चित्त-विधि का विवेचन है। यह विधि जीतकल्प पर आधारित है। यह विधि साधु एवं गृहस्थ के जीवन के प्रयोजन का शोधन तो करती ही है, साथ ही दुष्कर्मों एवं बाह्य व्यवहार का भी उत्तम रीति से शोधन करने वाली है।
अड़तीसवें उदय में आवश्यक विधि के अन्तर्गत सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान के स्वरूप पर विचार किया गया है तथा विकृति आदि के स्वरूप की सम्यक् व्याख्या की गई है। साथ ही इसी उदय के अन्तर्गत पाक्षिक प्रतिक्रमण सूत्र, यति एवं श्रावक-प्रतिक्रमण-सूत्र की व्याख्या, शक्रस्तव नामक अर्हत् एवं सिद्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org