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षोडश संस्कार
आचार दिनकर
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"जुगनू और सूर्य, सरसों का दाना और मेरू पर्वत, घटिका और वर्ष, जूं और हाथी के अन्तर के समान ही गृहस्थ-धर्म एवं यति-धर्म में भी महान् अन्तर है।"
इसलिए यति धर्म ग्रहण करने के पूर्व साधनरूप; अनेक सुर-असुरों, निर्ग्रन्थ यतियों (मुनियों) एवं अन्य परम्परा के साधुओं को संतुष्ट करना जिसका स्वभाव है और जो साधुजनों की सेवादि सत्कर्मों से पवित्र है, ऐसे गृहस्थ धर्म का विवेचन यहाँ अपेक्षित है ।
उस गृहस्थ-धर्म में भी पहले व्यवहार - धर्म का उल्लेख किया जा रहा है, उसके बाद यथार्थ गृहस्थ-धर्म का कथन करेंगे। यह व्यवहार भी प्रमाण है, क्योंकि ऋषभदेव आदि अरिहंत भी गर्भ, जन्म आदि कार्यों में व्यवहार का ही समाचरण करते हैं, आगम में भी कहा गया है :
" श्रमण भगवान् महावीर के माता-पिता प्रथम दिन (कुल परम्परागत) नालछेदन आदि जन्म सम्बन्धी कार्य करते हैं, तीसरे दिन चंद्र-सूर्य के दर्शन कराते हैं, छठे दिन रात्रि - जागरण करते हैं। बारह दिवस होने पर सूतक निवारण करते हैं और नामकरण संस्कार करते हैं।"
इस प्रकार व्यवहार-कर्म भगवान् के लिए भी आचरित है, ऐसा आगम में निर्दिष्ट है । आचारमार्ग में लोक-व्यवहार ही बलवान् होता है। केवली भगवान भी छद्मस्थ गुरू को वंदन करते है और छद्मस्थमुनि के द्वारा लाये गये आहार का उपभोग करते है । इस में व्यवहार-दृष्टि को ही प्रमाण माना गया है I
लौकिक शास्त्रों में भी कहा जाता है :
"विद्वान चाहे चार वेदों का धारक हो, फिर भी उसे लौकिक आचार का मन से भी उल्लंघन नहीं करना चाहिए ।"
इसलिए यहाँ सर्वप्रथम गृहस्थ जीवन के व्यवहार - धर्म का विवेचन किया जाता है। उसके बाद सम्पूर्ण यति धर्म की व्याख्या करेंगे। मोहान्धकाररूपी मल से रहित यति एवं गृहस्थ के आचार-धर्म का विधान करने वाले 'आचारदिनकर' नामक पवित्र शास्त्र में प्रस्तुत संस्कारों का उल्लेख किया जा रहा है
8. नामकरण 9. अन्नप्राशन
1. गर्भाधान 2. पुंसवन 3. जन्म 4. चन्द्र एवं सूर्य दर्शन 5. क्षीरासन 6. षष्टी 7. शुचिकर्म 10. कर्णवेध 11. मुण्डन 12. उपनयन 13. पाठारम्भ (शिक्षारम्भ ) 14. विवाह 15. व्रत - आरोपण एवं 16 अन्त्यकर्म
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