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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 3 प्रकृति के उपभोग के लिए लंगड़े तथा अन्धे के समान दोनों का प्राथमिक सहयोग आचार के ही अन्तर्भूत है। चार्वाकों के नास्तिकवादी मत में भी हमेशा सभी शुभ आचारों के अनुसरण का प्रतिपादन किया गया है।
___ इस प्रकार छहों ही दर्शनों में आचार को ही प्रमाण माना गया है। अन्य मतों की दृष्टि से यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त है।
___ अब प्रस्तुत कार्य के समर्थन के लिए स्वमत में प्रामाण्य रूप में मान्य एवं उपलब्ध आगमों में कहा गया है -
___ "ज्ञान सभी पुरूषार्थों का मूल है, दर्शन उसका स्कन्ध एवं शाखाएँ हैं, चारित्र उसका फल है और मोक्ष उसका रस है, ऐसा जिनेश्वर देव ने कहा है।"
ऐसे सिद्धांतरूपी सागर में तरंगरूपी चारित्र-धर्म की व्याख्या करने में कौन समर्थ है ? तथापि श्रुत केवली प्रणीत शास्त्रों के अर्थ का आंशिक आलम्बन लेकर किंचित् आचार-योग्य विधि को यहाँ प्रस्तुत किया जाता है -
वह आचार भी दो प्रकार का है - "यति आचार एवं गृहस्थ आचार"। जैसा कि कहा गया है कि सावद्य-योग परिवर्जनरूप प्रथम यति-धर्म सर्वोत्तम है, दूसरा श्रावक-धर्म है, तीसरा संविग्न पक्ष में, अर्थात् निवृत्ति-मार्ग में पद-न्यास के समान सम्यक्त्व का ग्रहण है।
प्रथम यति-धर्म पंचमहाव्रत, पंचसमिति एवं त्रिगप्ति के पालनरूप है। उसमें परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करना होता है। ऐन्द्रिक विषयों एवं कषायों पर विजय प्राप्त करना होता है। साथ ही इसमें श्रुत-ज्ञान का ग्रहण एवं बाह्य और आभ्यन्तर तपों का आचरण किया जाता है। इन सबके कारण मोक्ष-मार्ग का यह रूप दुःसाध्य है। गृहस्थ-धर्म परिग्रह धारणरूप होने से सुख-सुविधापूर्ण है। वह यथेष्ट विहार एवं भोगोपभोग आदि के द्वारा क्वचित् शारीरिक सुख देने वाला होने पर भी मोक्ष प्रदान करने में असमर्थ नहीं है। यह (गृहीधर्म) भी द्वादशव्रतों के धारण, मुनिजनों की उपासना, अर्हत् परमात्मा के पूजन तथा दान, शील, तप, भावना आदि के आश्रय से अभिवृद्धि को प्राप्त होता हुआ यतिधर्म के समान ही मोक्ष प्रदाता बन जाता हैं। जैसा कि आगम में कहा भी गया हैं -
"यतिधर्म कठिन होने से मोक्ष का समीपवर्ती मार्ग है, जबकि गृहस्थधर्म सुगम होने से मोक्ष का दूरगामी मार्ग है।"
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