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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर – 2 आर्हत्, बौद्ध, वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, चार्वाक आदि षट्दर्शन में कुछ दर्शन मोहरूप अंधकार से ग्रसित बुद्धि वाले होकर लोकमार्ग का अनुसरण करते हैं, उन्हें परमार्थ का स्वरूप ज्ञात नहीं है। कुछ लोग प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की चर्चारूप न्यायशास्त्र में प्रवीण हो उसमें ही अधिक रूचि रखते हुए आचार-मार्ग का तिरस्कार कर देते हैं, उनके कथन सज्जनों को प्रमाण नहीं मानना चाहिए। क्योंकि अर्हन्त भगवान ने भी, जो समस्त परमार्थ को जानते हैं, गर्भ से लेकर राज्याभिषेक तक के सभी संस्कारों को अपने शरीर में धारण किया है तथा गृहस्थ जीवन में सम्यक्त्व से युक्त ही देशविरतिरूप गृहीधर्म एवं प्रतिमावहन ग्रहणरूप आचार का स्वयं आचरण किया है। वे दीर्घकाल तक यतिधर्म तथा तपश्चर्या आदि करते हुए शुक्ल ध्यान को प्राप्त कर निमेष मात्र में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तथा केवलज्ञान के प्राप्त होने पर चिदानंदस्वरूप में लीन होकर 'पर' की अपेक्षा का त्याग कर देते हैं। जो समवसरण की रचना होने पर गणधरों के हृदय के संशयों का छेदन कर तथा उनको गणधर पद पर स्थापित कर धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हैं, उन भगवान के द्वारा निर्वाण प्राप्त कर लेने पर इन्द्रादि देवता अपने कर्त्तव्य के वशीभूत उनके प्राणरहित शरीर का अग्नि संस्कार कर वहाँ स्तूप आदि की रचना करते हैं। आर्हत मत में लोकोत्तर पुरूष द्वारा प्रतिपादित एवं आचरित होने के कारण यह संस्काररूप आचार-मार्ग प्रमाण माना गया है। - तत्त्वज्ञानानुसार मन-वचन-काया के शुभाशुभ आचरण के आधार पर ही शुभाशुभ कर्म का बंध होता है। अतएव आश्रव और संवर के द्रव्य व भाव-ऐसे दो भेद की अपेक्षा से वह आचार भी क्रियारूप तथा त्यागरूप-ऐसा दो प्रकार का होता है। सौगतों अर्थात् बौद्धों के शून्यवादी मत में भी सुखासन आदि शारीरिक क्रियाएँ, बुद्ध की अर्चनारूप क्रियाएँ एवं मंत्रस्मरण आदि क्रियाएँ आचरण के योग्य मानी गई हैं। वैशेषिकों के मत में, जो विशेष परीक्षारूप आचार है, वह पूर्वाचार की स्थापना का हेतु है। जैसा कि कहा गया है -- "क्रियात्मक व्यवहार के अभाव में विशेष ज्ञान नहीं होता है। नैयायिकों के मत में प्रमाण 'उपलम्भरूप न्याय-विधि' है। वह उपलम्भ रूप ज्ञान भी क्रिया की प्रतिपत्ति के बिना संभव नहीं है। इस प्रकार उन नैयायिक आदि के लिए भी आचार ही प्रमाण है। सांख्यों के तत्त्वज्ञान में भी पुरूष द्वारा Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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