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षोडश संस्कार
आचार दिनकर - 129 // सोलहवां उदय //
अन्त्य संस्कार
श्रावकों की आचारविधि के अनुसार व्यक्ति को व्रतों का पालन करते हुए जीवन का अन्तिम समय आने पर श्रेष्ठ संलेखना व्रत की आराधना करना चाहिए। उसकी विधि निम्न है -
परमात्मा के कल्याणकों के स्थानो पर, या वन में, या पर्वत पर जीव-जन्तु से रहित, बंजर विशुद्ध भूमि पर, या अपने घर में योग्य स्थान पर आमरण अनशन करे और गुरू उस शुभ स्थान पर ग्लान को मृत्युपर्यन्त आराधना कराए।
अवश्यम्भावी मृत्यु के निकट आने पर, अर्थात् ऐसा ज्ञान होने पर तिथि, वार, नक्षत्र, चन्द्रबल आदि का विचार न करे, वहाँ संघ को एकत्रित करके गुरू (साधु भगवत) उस ग्लान को, जिस प्रकार सम्यक्त्व-आरोपण के समय नंदी आदि की विधि बताई गई है, उसी विधि से नंदीक्रिया कराए। यहाँ इतना विशेष है कि सर्व नंदी, देववंदन, कायोत्सर्गादि की पूर्वोक्त विधि में (सम्यक्त्वारोपण के स्थान पर) "संलेहणा आराहणा' का उच्चारण करे। वैयावृत्यकर आराधनार्थ कायोत्सर्ग के बाद में "मैं आराधना देवता के आराधन हेतु कायोत्सर्ग करता हूँ"- ऐसा कहकर कायोत्सर्ग करने के लिए "अन्नत्थसूत्र" बोले। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का चार बार चिन्तन करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके आराधना देवता की निम्न स्तुति बोले -
"यस्याः सांनिध्यतो भव्या वाच्छितार्थप्रसाधकाः । श्रीमदाराधनादेवी विघ्नव्रातापहास्तु वः ।। शेष पूर्ववत् बोले ।
फिर गुरू पूर्वोक्त विधि के अनुसार सम्यक्त्व दण्डक एवं द्वादश व्रतों का उच्चारण कराए और उसी प्रकार वासक्षेप, कायोत्सर्ग आदि की सभी क्रिया करे, परंतु उसमें 'संलेहणा आराहणा' शब्द का उच्चारण करे। संलेखना में प्रदक्षिणा आदि ग्लान की शक्ति के अनुसार करवाते हैं, या नहीं भी करवाते हैं। नियमों को ग्रहण कराते समय "यावत् नियम पर्यन्त" के स्थान पर "यावत् जीवन पर्यन्त" यह कहे। सर्व जीवों से अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना करे। फिर श्रावक परमेष्ठीमंत्र के उच्चारणपूर्वक गुरू के सामने हाथ जोड़कर कहे - "मैं सब जीवों से
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