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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 130 क्षमायाचना करता हूँ। सब जीव, प्राणी मुझे क्षमा करें, सब प्राणियों के साथ मेरी मैत्री है, किसी के साथ मेरा वैर या शत्रुता नहीं है।" फिर गुरू कहते हैं - "सदैव क्षमायाचना करो, क्योंकि जो क्षमायाचना करता है, उसी की आराधना सम्यक होती है। जो क्षमायाचना नहीं करता है, उसकी आराधना सम्यक नहीं होती है।" फिर श्रावक गुरू को वन्दन करके कहता है - "हे भगवन् ! मुझे क्षमायाचना हेतु आज्ञा प्रदान करें।" गुरू कहते हैं - "मैं आज्ञा देता हूँ।" श्रावक परमेष्ठीमंत्र का पाठ करते हुए कहे - "अनंत भवों में भ्रमण करते हुए मैंने जो पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय आदि के एकेन्द्रिय सूक्ष्म या बादर (स्थूल), अथवा पर्याप्त या अपर्याप्त जीवो का क्रोध, मान, माया या लोभवश अथवा पाँचों इन्द्रियों के वशीभूत हो, राग या द्वेषपूर्वक घात किया हो, उन्हें पीड़ित किया हो, तो उस दुष्कृत के लिए मैं मन, वचन, काया से आलोचना करता हूँ। उन सब जीवों से मैं अपने दुष्कृतों की क्षमा मांगता हूँ|" पुनः परमेष्ठीमंत्र बोलकर कहे – “अनंत भवों में भ्रमण करते हुए मेरे द्वारा जो सूक्ष्म या बादर द्वीन्द्रिय जीवो का ......" शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र को बोलकर -"अनंत भव-भ्रमण में मेरे द्वारा जो सूक्ष्म या बादर त्रेन्द्रिय जीवो का ......." शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र पढ़कर -"अनंत भव-भ्रमण में मेरे द्वारा जो सूक्ष्म या बादर चतुरिन्द्रिय जीवो का ......" शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र को बोलकर -"अनंत भवों में भ्रमण करते हुए मेरे द्वारा जो पंचेन्द्रिय देव, मनुष्य, नारक या तिर्यंच योनि के जलचर, थलचर या खेचर जीवों को, अथवा संज्ञी या असंज्ञी तथा सूक्ष्म या बादर जीवों का ......" शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र पढ़कर श्रावक कहे"अनंत भवों में भ्रमण करते हुए मैंने क्रोध, मान, माया या लोभ से, या पाँचो इन्द्रियों के वशीभूत होकर, अथवा राग या द्वेष के वश जो झूठ बोला हो, तो उसके लिए मैं मन, वचन, काया से आलोचना करता हूँ।" पुनः परमेष्ठीमंत्र बोलकर -"अनंत भव भ्रमण में मैंने क्रोध से, या मान से अदत्त का ग्रहण ....." शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र बोलकर कहे – "अनंत भवों में भ्रमण करते हुए मैंने जो रागादि के वशीभूत हो देव, मनुष्य, तिर्यच योनि में मैथुन का सेवन ......." शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र बोलकर -- . "अनंत भवों में मैंने जो अट्ठारह पाप स्थानक का सेवन ..." शेष पूर्ववत् बोले। पुनः परमेष्ठीमंत्र बोलकर कहे --"मैंने जो पृथ्वीकाय शिला, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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