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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर 127 इस प्रकार सर्व करणीय कार्यों के अन्त में जिनप्रतिमा एवं देवादि के विसर्जन की यह विधि बताई गई है। अर्हत् अर्चना की विधि में भी विसर्जन की विधि इसी प्रकार से है । यह लघुस्नात्र की विधि है । फिर देवगृह में जाकर स्तोत्र एवं शक्रस्तव आदि के द्वारा स्तुति करके परमात्मा की पूजा कर आज क्या प्रत्याख्यान लेना है, इसका विचार करे । चैत्य की प्रदक्षिणा कर एवं उपाश्रय में जाकर बुद्धिमान पुरूष आनंदपूर्वक देवों की तरह ही साधुओं को भी नमस्कार करे एवं उनकी पूजा, अर्थात् भक्ति करे । उनके मुख से एकाग्रचित्त होकर धर्मदेशना को भलीभाँति सुने। फिर बाद में प्रत्याख्यान करके, गुरू को नमस्कार कर धन का अर्जन करे । कर्मादानों का त्याग कर यथास्थान उपयुक्त आचरण करे। सभी पूजादि की विधियाँ एवं व्रतबन्ध आदि की क्रियाएँ शास्त्र में बताए अनुसार करे । प्राण का नाश होने पर भी कुत्सित कर्म का आचरण न करे । फिर घर में अर्हत् परमात्मा की पूजा करे । साधुओं को भक्तिपूर्वक आहार- पानी देकर उनकी भक्ति करे। आगत अतिथियों का भी सत्कार करे। दीनों (याचकों) को संतुष्ट करके, व्रत एवं कुल के लिए उचित हो, ऐसा भोजन करे । साधुओं को आमन्त्रित करने का मंत्र इस प्रकार है :- खमासमणा सूत्रपूर्वक वंदन कर गृहस्थ कहे . "प्रासुक तथा इच्छित भोजन लेने हेतु हे भगवन् ! मेरे घर पर कृपा करें।" भोजन करने के पश्चात् गुरू की निश्रा में शास्त्र का विचार करे, पढ़े, सुने । तत्पश्चात् धन उपार्जन करके घर जाए तथा संध्या - पूजा करके सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व निजवांछित भोजन करे। शाम को उपाश्रय में सामायिक करके प्रतिक्रमण करे। फिर स्वयं के घर में आकर शान्तचित्त श्रावक रात्रि का चौथाई भाग व्यतीत होने के समय अर्हतस्तव आदि पढ़कर एवं प्रायः ब्रह्मचय - व्रत को ग्रहण करके सुखपूर्वक सोए । निद्रा के अन्त में, अर्थात् प्रातः काल में परमेष्ठीमंत्र के स्मरणपूर्वक जिन, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि के चरित्र का विशेष चिन्तन करे। अपनी इच्छा के अनुरूप मनोरथ एवं व्रतादि को ग्रहण करे। इस प्रकार दिन-रात की चर्या का आचरण प्रमादरहित होकर करे । यथावत् अर्थात् जिस प्रकार शास्त्र में कथित है, उस प्रकार व्रत में स्थित श्रावक विशुद्ध होता है। यह व्रतारोपण - संस्कार में गृहस्थ के दिन-रात की चर्या का वर्णन है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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