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________________ षोडश संस्कार 110 आचार दिनकर ऐसा कहते हुए उस पर वासक्षेप डालें। इसके पश्चात् श्रावक पुनः समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करे। फिर गुरू सहित समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करे। फिर गुरू संघ सहित समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करे । तब नमस्कारमंत्र आदि, श्रुतस्कन्धों अनुज्ञापना के लिए कायोत्सर्ग करे, उसमें चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे, फिर कायोत्सर्ग पूर्णकर चतुर्विंशतिस्तव का उच्चारण करे। तत्पश्चात् माला धारण करने वाले स्वजनों के साथ प्रतिमा के आगे जाकर शक्रस्तव बोलकर "भगवान् अर्हत् मुझे अनुज्ञा दें - यह कहकर श्रावक जिन चरणों पर पूर्व में स्थापित की गई माला को ग्रहण कर उसे अपने भाई के हाथ में रखकर नंदी के समीप जाकर गुरु से माला को अभिमंत्रित करवाए। गुरू खड़े होकर उपधान - विधि की व्याख्या करे और श्रावक खड़ा होकर उसे सुने । "परमपयपुरीपत्थिए' इत्यादि मालाउपवृंहण की गाथाओं द्वारा गुरुदेशना दे । उसके बाद वह जिनप्रतिमा की पूजा करे, तत्पश्चात् अम्लान फूलों की श्रेष्ठ मालाएँ विधिपूर्वक अपने हाथ में ग्रहण कर उसे उपधानकर्ता के दोनो कंधो पर शुद्ध चित्त से आरोपित करे। फिर कहे "नि:संदेह तुम गुरू के निम्न वचनों का वर्तन करने वाले बनो।" "तुमने अच्छा जन्म प्राप्त किया है, अतः तुम बहुत ही अधिक पुण्य प्रभार का संचय करने वाले बनो। तुम्हारा नरक एवं तिर्यंच गति का द्वार अवश्य ही निरूद्ध हो गया है। हे वत्स ! तुम नीच गोत्र और अकीर्ति के बन्धकारक नहीं हो । - यह नमस्कारमंत्र तुम्हें अग्रिम जन्म में भी दुर्लभ न हो। इस पंचनमस्कारमंत्र के प्रभाव से जन्मान्तर में भी तुम जाति, कुल, रूप, आरोग्य आदि प्रधान संपदा से युक्त रहो। दूसरे इसके प्रभाव से मनुष्य कभी भी दास, नौकर (प्रेषक), दुर्भागी, नीच और विकलेन्द्रिय नहीं होता । हे गौतम ! यदि व्यक्ति इस विधि से इस श्रुतज्ञान को पढ़कर श्रुतोक्त विधि का आचरण करें, तो वे उसी भव में कदाचित उत्तम निर्वाण को प्राप्त न भी हो, तो भी वे अनुत्तर, ग्रैवेयकादि देवलोकों में चिरकाल क्रीड़ा करने के बाद उत्तम कुल में उत्कृष्ट, प्रधान सर्वांग सुंदर, सर्व-कलाओं में निपुण तथा लोगों के मन को आनंद देने वाले देवेन्द्र के समान ऋद्धिवंत, दया में तत्पर, दान एवं विनय से युक्त, कामभोगों से विरक्त, संपूर्ण धर्म के अनुष्ठान से, शुभ ध्यान रूपी अग्नि से चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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