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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर 108 आरोग्य आदि प्रधान संपदा से युक्त रहो । दूसरे इसके प्रभाव से मनुष्य कभी भी दास, नौकर (प्रेषक), दुर्भागी, नीच और विकलेन्द्रिय नहीं होता । हे गौतम ! यदि कोई व्यक्ति इस विधि से इस श्रुतज्ञान को पढ़कर तोक्त विधि का आचरण करे, तो चाहे वे उसी भव में उत्तम निर्वाण को प्राप्त न भी हो, तो भी वे अनुत्तर, ग्रैवेयकादि देवलोकों में चिरकाल क्रीड़ा करने के बाद उत्तम कुल में उत्कृष्ट प्रधान सर्वांग सुंदर, सर्व कलाओं में निपुण तथा लोकों के मन को आनंद देने वाले देवेन्द्र के समान ऋद्धिवंत, दया में तत्पर, दान एवं विनय से युक्त, कामभोगों से विरक्त, संपूर्ण धर्म के अनुष्ठान से, शुभ ध्यान रूपी अग्नि से चार घातीकर्मरूप ईंधन को दग्ध करने वाले महासत्त्व, निर्मल केवलज्ञान, सर्वकर्ममल से रहित होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं। यह निर्मल फल जानकर जो बहुत मान देने योग्य देव हैं, वे ही सूरि हैं। उनके वचन से यह उपधान महानिशीथ - सूत्र से सिद्ध करो इस गाथा में प्रकरण - कर्त्ता श्रीमान् देवसूरि ने भगवान के "माणदेव सूरिस्स" - इस विशेषण द्वारा अपना भी नाम सूचन किया है। यह उपधान की विधि है । उपधान के छः मंत्र हैं । अब उपधान की तपश्चर्या के उद्यापनरूप मालारोपण की विधि इस प्रकार है - पूर्ववत् नंदी आदि की क्रिया करें, यहाँ इतना विशेष है कि मालारोपण की यह विधि उपधान- तपश्चर्या की अवधि पूर्ण होने पर तत्काल उसी दिन, या कुछ दिनों के बाद कर सकते हैं। मालारोपण के प्रथम दिन साधुओं को अन्न-पान, वस्त्र - पात्र - वसति पुस्तक आदि का दान दें। उस दिन संघ को भोजन प्रदान करें। वस्त्रादि से संघ की पूजा करें, अर्थात् उनको वस्त्रादि दें। साथ ही उसी दिन दीक्षा के उपयुक्त शुभ तिथि, नक्षत्र, वार, लग्न होने पर उत्तम विधि से बृहत् स्नात्र द्वारा परमात्मा की पूजा करें। माता-पिता, परिवारजन साधर्मिक आदि को एकत्रित करें। फिर माला को ग्रहण करने हेतु निर्दिष्ट उचित वेष को धारण कर, जूड़ा बांधकर, उत्तरासन धारणकर, निजवर्ण के अनुसार जिन - उपवीत, उत्तरीय आदि को धारण कर तैयार किए गए प्रचुर गन्ध आदि के उपकरणों को ग्रहण करके और हाथ में अक्षत, नारियल आदि को लेकर पूर्ववत् समवसरण की तीन प्रदक्षिणा करें। उसके पश्चात् गुरू को खमासमणा सूत्रपूर्वक वंदन करके कहें - "इच्छापूर्वक आप मुझे पंचमंगलमहाश्रुतस्कन्ध, इरियावहिश्रुतस्कन्ध, चैत्यस्तवश्रुतस्कन्ध, चतुर्विंशतिस्तवश्रुतस्कन्ध, शक्रस्तव श्रुतस्कन्ध, Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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