________________
षोडश संस्कार
107
आचार दिनकर निर्वेदजनक - चार प्रकार की कथाओं द्वारा सुविदित गंभीर जिन - सिद्धांत का साररूप से विवेचन करे ।
इस अवसर पर गुरु को कथा - ग्रन्थों के आधार पर संसार - समुद्र से पार कराने वाली, श्रद्धा एवं वैराग्य को उत्पन्न करने वाली तथा गुणों से युक्त धर्मकथा भी करनी चाहिए। श्रद्धा और वैराग्य से युक्त आचार्य को जानकर (अर्थात् प्राप्त करके) ही निपुणमति भव्यजीव उनसे चैत्यवंदन आदि क्रियाओं के लिए सूत्रों का अध्ययन करता है ।
"हे देवानुप्रिय ! आपने उपधानपूर्वक अध्ययन करके अपने जीवन को सफल किया है। तुम आज से ही जीवनपर्यन्त त्रिकाल एकाग्र एवं सुस्थिर चित्त से चैत्य आदि का वंदन करना, क्योंकि क्षणभंगुर संसार में मनुष्यत्व की प्राप्ति का यही सार है। तुम प्रातः काल में जब तक चैत्य एवं साधुओं को विधिपूर्वक वंदन न कर लो, तब तक जल भी ग्रहण मत करना । पुनः मध्याहन में नियम से वन्दना करके भोजन करना । सांयकाल में पुनः नियम से वन्दन करके सोना ।"
इन वचनों को सुनाकर इस प्रकार का अभिग्रह करवाकर गुरू वर्धमानविद्या से अभिमंत्रित वासक्षेप उस गृहस्थ के उत्तम अंग, अर्थात् सिर पर तुम संसार सागर पार करने वाले बनो" - ऐसा कहकर सात बार डाले । तथा यह कहे "इस विद्या के प्रभाव से तुम अपने कार्यों को पूर्ण करते हुए संसार - समुद्र को पार करो। " चतुर्विध संघ भी सुलक्षणों से युक्त हो, तुम संसार-सागर को पार करने ऐसा कहते हुए उस पर वासक्षेप डाले ।
"तुम धन्य हो, वाले बनो"
उसके पश्चात् वह सुगंधित द्रव्य से जिनप्रतिमा की पूजा करे । तत्पश्चात् गुरू अम्लान फूलों की श्रेष्ठ मालाएँ लेकर विधिपूर्वक अपने हाथ में ग्रहण करके उसके दोनों कंधो पर शुद्ध चित्त से आरोपित करते हुए निम्न वचन कहे
""
-
—
Jain Education International
"तुमने अच्छा जन्म प्राप्त किया है, अतः तुम बहुत ही अधिक पुण्य - प्रभार का संचय करने वाले बनो। तुम्हारा नरक एवं तिर्यंच गति का द्वार अवश्य ही निरूद्ध हो गया है । हे वत्स ! तुम नीच गोत्र के और अकीर्ति के बन्धकारक नहीं हो।
--
यह नमस्कारमंत्र तुम्हें अग्रिम जन्म में भी दुर्लभ न हो। इस पंचनमस्कारमंत्र के प्रभाव से जन्मान्तर में भी तुम जाति, कुल, रूप,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org