SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 106 होता है। अध्यवसाय शुद्ध होने पर हे गौतम ! वह निश्चय ही आराधक कहा जाता है। हे गौतम ! जो इस उपधान को न करके भक्तिवान् नमस्कारमंत्र का ग्रहण करता है, उसे अगृहीत के समान ही समझना चाहिए। हे गौतम ! तीर्थकर तथा उनके वचनों की तथा संघ एवं गुरूजनों की आशातना करता हुआ वह व्यक्ति बहु संसार का अनुगामी होता है। उपधान बिना ही जिसने नमस्कारमंत्र पढ़ लिया है, ऐसे व्यक्ति को भी बाद में उपधान करने से सुलभ बोधि कहा गया है। इस प्रकार उपधान करने वाला व्यक्ति सर्व वन्दन आदि विधियों में निपुण होता है उसे प्रथम जिनपूजा करके सूत्र में कही गई विधि के अनुसार अध्ययन करना चाहिए। उसे स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु, विरामस्थान आदि से परिशुद्ध चैत्यंवदनसूत्र को पढ़कर उसका अर्थ जानना चाहिए। उसमें भी जहाँ सूत्र और अर्थ के विषय में किसी प्रकार की शंका हो, तो उस पर चिन्तन करके पूर्णतया शंका से रहित हो जाना चाहिए। वह शुभ तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न, अनुकूल चन्द्रबल, आदि का शोधन करके श्रेष्ठ समय में अपने सामर्थ्य के अनुरूप (निज वैभव के अनुरूप) भुवननाथ, अर्थात् परमात्मा की पूजा करके फिर भक्तिपूर्वक साधुवर्ग को दान दे (प्रतिलाभे)। यह दान भक्तिपूर्वक हर्षोल्लास के साथ श्रद्धा, संवेग, विवेक एवं परम वैराग्य से युक्त होकर एवं श्रमणगण के प्रति प्रकृष्ट राग-द्वेष, मोह एवं मिथ्यात्वरूपी मल के कलंक से रहित होकर देना चाहिए। पुनः प्रतिसमय निर्मल अध्यवसायों से अति उल्लसित होकर त्रिभुवनगुरू जिन भगवान की प्रतिमा में अपनी दृष्टि को केन्द्रित करके, जिन वंदन से अपने को धन्य मानते हुए जीवजन्तुओं से रहित स्थान में स्थित होकर अपने सिर पर कर-कमलों की अंजली बनाकर निःशंक भाव से सूत्र एवं अर्थ के पदों का चिन्तन करे। जिननाथ द्वारा प्रतिपादित गंभीर सिद्धांतो में कुशल, सचारित्र से युक्त, अप्रमत्तता आदि विविध गुणों से युक्त गुरू के सान्निध्य में, चतुर्विधसंघ सहित तथा विशेष रूप से अपने बंधु-बान्धवों सहित इस विधि में निपुण होकर जिनबिंब को वंदन करे। उसके पश्चात् परम भक्तिपूर्वक गुणवान् साधुजनों को वंदन करे और साधर्मिकों को यथायोग्य प्रणाम आदि करे। तत्पश्चात् मूल्यवान्, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ वस्त्र प्रदान करके श्री संघ का सम्मान करे। इस अवसर पर गुरू आक्षेपणी, विक्षेपणी और संवेग एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy