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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 100 पौषध-व्रत करते हैं। इस पौषध-व्रत की द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से आराधना की जाती है, जैसे काल की अपेक्षा से जब तक उसकी आराधना की जाती है, तब तक इसमें भी नंदी, व्रत, नियम आदि की ग्रहण-विधि एवं प्रतिज्ञा-पाठ का उच्चारण आदि पूर्ववत् ही है। यह चौथी पौषध-प्रतिमा की विधि है। इस प्रकार शेष प्रतिमाओं को भी पाँच मास आदि के समय हेतु ग्रहण करने की विधि भी पूर्वोक्त ही है - नंदी, खमासमणा, दण्डकादि क्रियाएँ भी पूर्ववत् करके प्रतिज्ञा पाठ में उल्लेखित व्रतचर्या का पालन करें, किन्तु कालिक परिस्थितियों एवं संघयण की शिथिलता के कारण, पांच से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमाओं तक की अनुष्ठान-विधि वर्तमान में दृष्टिगोचर नहीं होती है। उचित समय पर उचित क्रमानुसार क्रिया करते हुए प्रथम प्रतिमा के आरम्भ में ही शुभ मुहूर्त आदि का अवलोकन कर लिया जाता है, शेष प्रतिमाओं का वहन उसी क्रम से सतत् रूप से करते हैं। उसमें मुहूर्त आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती है। जिन क्रियाओं को अलग-अलग समय में किया जाना है, उनके प्रारम्भ में मुहूर्त आदि देखा जाता है। यह सम्यक्त्व-सामायिक आरोपण की विधि है। __ अब श्रुतसामायिक-आरोपण की विधि का वर्णन है : साधुओं को योगोद्वहन विधि से श्रुत आरोपण हेतु आगम-पाठों के अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रुतसामायिक का आरोपण कराते हैं। गृहस्थों का श्रुतसामायिक आरोपण योगोद्ववहन एवं आगम-पाठ के बिना उपधानवहनपूर्वक कराते हैं और गृहस्थों के श्रुतारोपण में पंचपरमेष्ठी मंत्र, ईर्यापथिकी, शक्रस्तव, चैत्यस्तव, चतुर्विंशतिस्तव, श्रुतस्तव, सिद्धस्तव आदि पढ़ाते है। जिसके द्वारा उपधान, अर्थात् ज्ञान आदि की परीक्षा की जाती है, वह उपधान है, अथवा चतुर्विध संवर समाधिरूप सुखशय्या पर जो उत्तम रूप में सिरहाने की तरफ रखा जाता है, उसे उपधान कहते हैं। ज्ञातव्य है कि उपधान में छ: श्रुतस्कन्धों का उपधान होता है - (1.) परमेष्ठी मंत्र का (2.) ईर्यापथिकी का (3.) शक्रस्तव का (4.) अर्हत्-चैत्यस्तव का (5.) चतुर्विंशतिस्तव का (6.) श्रुतस्तव का और (7.) सिद्धस्तव का। सिद्धस्तव की प्रथम तीन गाथाओं की वाचना उपधान के बिना भी होती है। शेष गाथाएँ आधुनिक हैं, अतः उनके हेतु उपधान आवश्यक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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