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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर इन ग्यारह प्रतिमाओं में से जिसमें श्रावक शंका आदि से रहित होकर निर्मल सम्यक् दर्शन का पालन करता है, उसे पहली दर्शन - प्रतिमा कहते हैं। इसी प्रकार दूसरी प्रतिमा में श्रावक व्रतधारी, तीसरी प्रतिमा में सामायिककर्त्ता, चौथी प्रतिमा में चतुर्दशी, अष्टमी आदि पर्व तिथियों में पूर्णरूपेण चतुर्विध आहार का त्याग कर पौषधधारी होता है। पौषधकाल में रात्रि में भी ध्यानादि प्रतिमा का वहन करता है । पाँचवी प्रतिमा में श्रावक स्नान-रहित, प्रासुक भोजन करने वाला, दिन में पूर्ण ब्रह्मचर्य का एवं रात्रि में भी कृत परिमाण होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला होता है । छठी प्रतिमा में श्रावक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सातवीं प्रतिमा में सचित्त आहार का त्याग करता है। आठवीं प्रतिमा में स्वयं आरंभ समारंभ करने का त्याग करता है। नवीं प्रतिमा में प्रेष्यारंभ का त्याग करता है । दसवीं प्रतिमा में उद्दिष्ट - कृत आहार का त्यागी होता है, सिर का मुण्डन करता है । (कुछ चोटी भी रखते हैं ।) स्वयं परिग्रह रहित होता है, तथापि (पुत्रादिक को ) अर्थ के विषय में (जानता हो, तो ) निर्देश देने वाला होता है। ग्यारहवीं प्रतिमा में उस्तरे से मुण्डन करके या लोच करके रजोहरण और पात्रग्रहण कर साधु के समान भिक्षाचर्या एवं विचरण करता है । निर्ममत्व हो स्वज्ञाति से आहारादि प्राप्त करता है । प्रथम प्रतिमा का वहन एक मास तक द्वितीय प्रतिमा का दो मास तक तृतीय प्रतिमा का तीन मास, इस प्रकार बढ़ते क्रम में ग्यारहवीं प्रतिमा का वहन ग्यारह मास तक करता है। जो नियम पूर्व प्रतिमा में कहे गये हैं, उनका वहन आगे की उत्तरोत्तर प्रतिमाओं में भी करें। इनमें वितथ- प्रज्ञापना एवं श्रद्धान् आदि अतिचार हैं। इनमें से सबसे पहले दर्शन - प्रतिमा की विधि यह है दर्शन - प्रतिमा : - इसमें भी पूर्ववत् नंदी, चैत्यवंदन, खमासमणा, वासक्षेप आदि की विधि करके एवं दर्शनप्रतिमा ग्रहण सम्बन्धी पाठ का उच्चारण करें। वह पाठ (दण्डक) इस प्रकार है Jain Education International 98 "हे भगवन् ! आज मैं आपके समक्ष द्रव्य एवं भाव रूप मिथ्यात्व का त्याग करता हूँ एवं दर्शन - प्रतिमा को ग्रहण करता हूँ। आज से अन्य तैर्थिकों के देवों तथा अन्य तैर्थिकों द्वारा ग्रहीत अर्हत् चैत्यों को वंदन एवं नमस्कार करने, अन्य तैर्थिकों के साथ सम्भाषण करने, उन्हें बुलाने या उनसे संलाप करने का त्याग करता हूँ। इसी प्रकार उनको अशन, पान, खादिम, स्वादिम देने का मैं तीन योग एवं तीन करण से, अर्थात् मन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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