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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 97 मास तक दोनों समय सामायिक ग्रहण करे। फिर तीन बार नमस्कार-मंत्र का पाठ करके दण्डक का उच्चारण कराएं। वह इस प्रकार है - "हे भगवन् ! मैं सामायिकव्रत ग्रहण करता हूँ, अतः सभी पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग करता हूँ। जब तक मैं इस नियम का पालन करूंगा, तब तक मन, वाणी और शरीर रूपी तीनों योगों से पाप-व्यापार को न तो स्वयं करूंगा और न कराऊंगा। हे भगवन् ! (पूर्वकृत पाप-प्रवृत्ति से) मैं निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूँ, उसकी भर्त्सना करता हूँ एवं उनके प्रति रहे हुए ममत्व भाव का त्याग करता हूँ। चार प्रकार की यह सामायिक इस प्रकार है - 1. द्रव्य, 2. क्षेत्र, 3. काल एवं 4. भाव । द्रव्य से सामायिक की अपेक्षा से एवं क्षेत्र से इस क्षेत्र में (यहाँ) अथवा अन्यत्र, काल से छ: मास तक, भाव से जब तक ग्रहों से ग्रसित न होऊँ, जब तक छल से छला न जाऊँ, जब तक सन्निपात आदि से ग्रसित न होऊँ तब तक मैं इस सामायिक व्रत को धारण करता हूँ। (इस पाठ का) तीन बार उच्चारण करने वाले के सिर पर गुरू वासक्षेप करे। अक्षत, वास आदि को अभिमंत्रित करना और संघ के हाथ में वासक्षेप देना - ये दोनों क्रियाएँ यहाँ नहीं की जाती है, किन्तु तीन प्रदक्षिणा देते हैं। यह छ: मासिक सामायिक आरोपण की विधि है। इसी प्रकार अन्य द्वादश व्रतों को भी इसी प्रकार दण्डक उच्चारण की विधि के द्वारा मास या छ:मास या वर्ष भर की अवधि हेतु दण्डक का उच्चारण करें, अर्थात् व्रत का ग्रहण करें। फिर सम्यक्त्व आदि व्रतों के काल को लेकर आगे "जावज्जीव" शब्द न बोलें, उसके स्थान पर मास, या छ: मास, या वर्ष इत्यादि अवधि का ही उच्चारण करें। शेष व्रतों में भी "जावज्जीव" शब्द के स्थान पर मास, या छ: मास, या वर्ष इत्यादि अवधि का ही उच्चारण करें। श्रावक-प्रतिमाओं के उदवहन की विधि इस प्रकार से है - जो प्रतिमा जीवन पर्यन्त के लिए ग्रहण की जाती है, उसमें काल आदि का नियम नहीं होता है, शेष में होता है। गृहस्थ की प्रतिमाएँ ग्यारह हैं, जो इस प्रकार हैं - 1. दर्शन 2. व्रत 3. सामायिक 4. पौषध 5. नियम-प्रतिमा 6. ब्रह्मचर्य 7. सचित्त-त्याग 8. आरंभ-त्याग 9. प्रेष्यत्याग 10. उदिष्टत्याग और 11. श्रमणभूत प्रतिमा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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