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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 96 मैं वर्ष में इतनी सामायिक, इतने पौषध आदि करूंगा। मैं दसों दिशाओं में इतने योजन तक गमन करूंगा। भोजन, वस्त्र आदि का साधु-साध्वियों को दान दूंगा। सर्वप्रथम यतिजनों को दान देकर एवं उन्हें प्रणाम करके फिर स्वंय भोजनादि करूंगा। सुविहित साधुओं का योग नहीं होगा, तो दिशावलोकन करके भोजन करूंगा। इस प्रकार मैं बारह प्रकार के श्रावक-धर्म का पालन करूंगा। भले ही मृत्यु हो जाये, फिर भी मैं बिना छने हुए जल का पान एवं उससे स्नान नहीं करूंगा। मैं कामवर्धक कथा करने, अहंकारपूर्वक खंखार करने, अमर्यादित रूचिकर चतुर्विध आहार करने तथा जिन से युक्त जिन मंडप में विकथा और कलह करने का त्याग करता हूँ। मैं अमुक गच्छ में, अमुक गुरू की, या आचार्य की परम्परा में (वंश में) उनके अमुक शिष्य के पास, अमुक सूरि की निश्रा में, अमुक वर्ष में, अमुक मास में, अमुक पक्ष में, अमुक तिथि में, अमुक वार में, अमुक नक्षत्र में एवं अमुक नगर में, अमुक का पुत्र, अमुक श्रावक, अमुक श्रावक की भार्या, या अमुक श्राविका इस गृहस्थ-धर्म को ग्रहण करता हूँ/करती हूँ। क्षत्रियों के लिए प्राणातिपात-विरति के स्थान पर अतिरिक्त दो गाथाएँ देकर उनकी व्रतमर्यादा बताई गई है, वे इस प्रकार हैं - युद्ध में तथा गोगृह (गोकुल). चैत्य, गुरू, साधु एवं संघ पर उपसर्ग होने की स्थिति में उनके रक्षार्थ तथा दुष्टों का निग्रह करने की स्थिति में होने वाले जीवों के घात में मुझे व्रतभंग का दोष नहीं है। इसी प्रकार स्त्री एवं देश के रक्षणार्थ सिंह, व्याघ्र एवं शत्रु का नाश करने में भी मुझे व्रतभंग का दोष नहीं है, अन्यत्र यथाशक्ति जीवरक्षा करूंगा तथा छाना हुआ ही जल पीऊंगा। - इस प्रकार की मर्यादाओं सहित गुरू के वचनानुसार इस गृहीधर्म का आचरण करें। अल्प या अधिक रूप से व्रत का भंग होने पर दोष-विशद्धि करें। यह परिग्रह परिमाण के टिप्पणक की विधि है। इन बारह व्रतों में भी जो श्रावक जितने व्रतों का ग्रहण करता है, उसको उतने व्रत कहे जाते हैं। जो छ: मासिक सामायिक व्रत को स्वीकार करता है। उसकी विधि यह है - चैत्यवंदन, नंदी, खमासमणा आदि सब सामायिक में कहे गए अनुसार करें। विशेष यह है कि कायोत्सर्ग के बाद उसके हाथ में रही हुई नवीन मुखवस्त्रिका पर गुरू वासक्षेप डाले। उसी मुखवस्त्रिका से वह छ: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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