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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 77 उसके पश्चात् घर के अन्दर वधू एवं वर - दोनों के बीच दृष्टि-संयोग, अर्थात् देखना, परस्पर दोनों के नाम ग्रहण करना आदि पूर्ववत् अनुसार ही करे। यह देश कुलाचार के अनुसार विवाह की अन्य विधि है। यह अपनी संपत्ति एवं सम्बन्धित पक्षों के अनुसार करनी चाहिए। मूलशास्त्रों को देखकर यह विधि बताई गई है। अपने देश एवं कुल के अन्य आचारों की जानकारी महात्माओं (सज्जनों) से प्राप्त करें। वर-कार्य एवं रात्रि में माता एवं कुल-देवी की पूजा अपने-अपने वंश की जो विधि है, उसके अनुरूप करें। वेदी की स्थापना एवं मण्डप-निर्माण का कार्य विधि के ज्ञाता कुल-वृद्ध आदि के कथनानुसार करें। विवाह के प्रारम्भ में कंकण-बंधन आदि कुल के अनरूप करें तथा विवाह के अन्त में उसे खोलने का कार्य वृद्धों के वचनानुसार करें। ऊन का, सूत का, रेशमी या अन्यमत (धर्म) में मूंज का कंकण कुल की रीति के अनुसार कहा गया है। कुछ लोग मातृगृह में दंपत्ति का कर-बंधन करने के लिए कहते हैं, तो अन्य लोग मधुपर्कप्राशन के पश्चात् आसन पर बैठे हुए वर-वधू का कर-बंधन करने के लिए कहते हैं। अग्नि की प्रदक्षिणा के समय वधू अपने पैर से सिलबट्टे का स्पर्श करें, ऐसा कुछ लोग कहते हैं, किन्तु कुछ लोग इसे नहीं मानते । कुछ लोग वर-कन्या का समागम होने पर अंचल को खींचने से ही विवाह होना मानते हैं। देश के आचार के अन्तर्गत विवाह के अन्त में महिलाएँ परस्पर गायन के द्वारा उपहास करती हैं, इसे देश, कुल आदि से जानें। पिता और माता के वचन से वर-कन्या का जो संयोग होता है, उसे धर्म-विवाह मानना चाहिए, चाहे उसकी विधि कुछ भी रही हो। कुछ लोग बहुत आडंबर से और बहुत द्रव्य (प्रचुर द्रव्य) का व्यय करके माता-पिता की आज्ञा के बिना विवाह करते हैं, उसे पाप विवाह समझना चाहिए। यहाँ मध्य में जो कुछ कहा गया है, वह शास्त्र में कही गई परम विधि है, तथापि देश, वंश और व्यवहार के अनुसार अन्य विधि भी अपनाई जा सकती है। वैश्या-विवाह-विधि : अब सभी कामुकजनों की कामना करने वाली वेश्या के विवाह की विधि का उल्लेख करते हैं। वह इस प्रकार है - पूर्व में कहे गए अनुसार विवाह के शुद्ध लग्न में अविवाहित, चतुर, स्नान, लेप एवं अलंकारो से युक्त, कौतुक मंगल से युक्त, वेश्याजनों (वेश्याओं) से घिरी हुई, जिसके समीप में बहुत से गीत एवं वाद्य बज रहे हों (ऐसी उस) वेश्या को गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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