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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 74 हो, शान्तिप्रद हो, पुष्टिप्रद हो, ऋद्धिपद हो, वृद्धिपद हो तथा धन सन्तान की वृद्धि हो।" पूर्व के तीन लाजाकर्म में वर के हाथ के ऊपर कन्या का हाथ होता है। (अब) कन्या का हाथ नीचे करे और वर का हाथ ऊपर रखे। उसके बाद वर और वधू को आसन से उठाकर वर को आगे करे तथा वधू को पीछे करे। उसके बाद मुट्ठी भर लावे की अग्नि में आहुति देकर गृहीगुरू इस प्रकार कहे - "अग्नि की प्रदक्षिणा करें।" । जब वर और वधू अग्नि की प्रदक्षिणा कर रहे हों, तब कन्या के पिता तथा कुल- ज्येष्ठ आदि वर और वधू को दी जाने वाली सभी वस्तुएँ, वस्त्र, आभरण, सोना, चांदी, तांबा, कांस्य, भूमि, मूल्य (मुद्रा), हाथी, घोड़ा, दासी, गाय, बैल, पलंग, रूई का गद्दा, दीप, शास्त्र, पुस्तक, पकाने के लिए बर्तन आदि को वेदी के पास ले आएं। उसके अन्य बन्धु, सम्बन्धी, मित्र आदि भी अपनी सम्पत्ति के अनुसार पूर्वोक्त वस्तुएँ वेदी के पास ले आएं। फिर प्रदक्षिणा के अन्त में वर और वधू उसी प्रकार आसन पर बैठें। चतुर्थ लाजाकर्म के पश्चात् वर को दाहिनी और वधू को बांई ओर बैठाएं। उसके बाद गृहस्थ गुरू, कुश, दूब, अक्षत एवं सुगन्धित गन्ध अपने हाथों में रखकर इस प्रकार कहे -"जिस अनुष्ठान के द्वारा शक्र आदि ने करोड़ों संसारी जीवों को व्यवहार-मार्ग बताने के लिए ऋषभदेव का सुनंदा एवं सुमंगला से विवाह किया था, ज्ञात या अज्ञात वह अनुष्ठान अनुष्ठित हो, अर्थात् सम्पूर्ण हो।" इस प्रकार कहकर (गृहीगुरू) वास (सुगन्धित गन्ध), दूब, अक्षत, एवं कुश को वर-वधू के मस्तक पर डाले। फिर गृहस्थ गुरू के द्वारा आदिष्ट वधू को पिता जल, जौ, तिल एवं कुश को हाथ में ग्रहण करके, वर के हाथ में देकर इस प्रकार कहे -"मैं मांगलिक उपहार देता हूँ, ग्रहण करो।" वर कहता है - "मैं ग्रहण करता हूँ, मैंने ग्रहण कर लिया और धारण कर लिया है।" गुरू कहते हैं - "सुग्रहीत हो, सुपरिग्रहीत हो।" __- पुनः उसी प्रकार वस्त्र, आभूषण, हाथी, देय वस्तुएँ वर को प्रदान करते समय भी वधू का पिता एवं वर ये वाक्य कहकर यह विधि करे। फिर सब वस्तुएँ देने पर गुरू इस प्रकार कहे -"वधू और वर आप दोनों सघन, प्रगाढ़, अपरिवर्तनीय, अघाती, अपायरहित, अशिथिल, अवश्य भोगने योग्य पूर्व-कर्मों के सम्बन्ध से विवाह में प्रतिबद्ध हुए हैं। यह विवाह अखण्डित, अक्षय, अव्यय, निरपाय, निव्याबाध हो, सुखद हो, शान्तिप्रद हो, पुष्टिप्रद हो, ऋद्धिप्रद हो, वृद्धिप्रद हो, धन-सन्तान की वृद्धि कारक हो।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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