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षोडश संस्कार
नपुंसक वेदोऽस्ति, सप्ततिकोटाकोटिसागरस्थितिरस्ति अर्ह ऊँ ।"
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इस वेदमंत्र को पढ़कर पुन: इस प्रकार कहे - "आप दोनों का प्रगाढ़ एवं सघन बंधन मोहनीय कर्मों के उदय के कारण हुआ, यह बन्धन स्नेहयुक्त, सुकृतयुक्त, सुनिष्ठित, सुसंबद्ध तथा संसार की स्थिति पर्यन्त अक्षय रहे, (अतः ) आप दोनों अग्नि की प्रदक्षिणा करें।" पुनः पूर्ववत् अग्नि की प्रदक्षिणा कराए यह द्वितीय लाजाकर्म है। चारों ही लाजाकर्मों में प्रदक्षिणा के प्रारंभ होने पर वधू मुट्ठी भर 'लावों' की अग्नि में आहुति दे उसके बाद उन दोनों के उसी प्रकार बैठने पर गृहीगुरू यह वेदमंत्र पढ़े"ऊँ अर्ह कर्मास्ति, वेदनीयमस्ति सातमस्ति, असातमस्ति, सुवेद्यं सातं दुर्वेद्यमसातं, सुवर्गणाश्रवणं सातं दुर्वर्गणा श्रमणमसातं, शुभपुद्गलदर्शनं सातं, दुष्पुद्गलदर्शनमसातं, शुभषड्रसास्वादनं सातं, अशुभषड्रसास्वादनमसातं, शुभगन्धाघ्राणं सातं अशुभगन्धाघ्राणमसातं शुभपुद्गलस्पर्शः सातं अशुभपुद्गलस्पर्शोऽसातं, सर्व सुखकृत्सातं सर्वदुःखकृ दसातं, अर्ह ऊँ।"
यह वेदमंत्र पढ़कर इस प्रकार कहे - " आप दोनों को सातावेदनीय कर्म हो, असातावेदनीय न हो, इसलिए अग्नि की प्रदक्षिणा करें। इस प्रकार अग्नि की प्रदक्षिणा देकर वधू एवं वर उसी प्रकार बैठ जाएँ यह तीसरा लाजाकर्म है। फिर गृहस्थ गुरू यह वेदमंत्र पढ़े
"ॐ अर्ह सहजोऽस्ति स्वभावोऽस्ति संबन्धोऽस्ति प्रतिबद्धोऽस्ति, मोहनीयमस्ति वेदनीयमस्ति नामास्ति, गोत्रमस्ति, आयुरस्ति, हेतुरस्ति, आश्रवबद्धमस्ति, क्रियाबद्धमस्ति, कायबद्धमस्ति तदस्ति सांसारिकः सम्बन्धः अर्ह ऊँ ।"
इस वेदमंत्र को पढ़कर कन्या के पिता, चाचा, ताऊ, भाई या कुल - ज्येष्ठ के हाथों में तिल, जौ, दाभ, दूब एवं जल भरकर इस प्रकार कहे - "आज अमुक वर्ष में, अमुक आयन में, अमुक ऋतु में, अमुक मास में, अमुक पक्ष में, अमुक तिथि में, अमुक वार, अमुक नक्षत्र में, अमुक योग में, अमुक करण में एवं अमुक मुहूर्त में पूर्वकर्म से अनुबद्ध, वस्त्र गन्धमाला से अलंकृत, सोने, चांदी तथा मणियों के आभूषणों से भूषित इस दान का ग्रहण करें ।" यह कहकर वर और वधू के जुड़े हुए हाथों के मध्य इस जल को छिड़के, या डाले । वर कहता है - " मैं ग्रहण करता हूँ, यह मेरे द्वारा ग्रहण कर ली गई है।" गुरू कहता है - "भली भांति ग्रहण की गई
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आचार दिनकर
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मिथ्यात्वमस्ति, मिश्रमस्ति,
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सम्यक्त्वमस्ति,