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________________ षोडश संस्कार आचार दिनकर - 70 यह तोरण की प्रतिष्ठा-विधि है। उसके बाद अग्निकुण्ड में, वेदिका के मध्य आग्नेय कोण में मंत्रपूर्वक अग्नि की स्थापना करें। अग्नि की स्थापना का मंत्र इस प्रकार है - "ॐ रं रं री रौं र: नमोऽग्नेय, नमोबृहद्भानवे, नमोऽनन्ततेजसे, नमोऽनन्तवीर्याय, नमोऽनन्तगुणाय, नमो हिरण्यरेतसे, नमः छागवाहनाय, नमो हव्याशनाय, अत्र कुण्डे आगच्छ-आगच्छ, अवतर-अवतर, तिष्ठ-तिष्ठ स्वाहा।" अन्य धर्म, देश एवं कुल परम्परा के अनुसार वेदी के अन्दर के भाग में हस्त- लेपन करते हैं। अन्य देश एवं कुल के आचार के अनुसार मधुपर्क खिलाने के बाद, हस्त लेपन से पहले परस्पर आयुध लेकर चलना, कण्ठ में आयुध धारण करना, वधू-वर को घुमाना, नाव चलाना, मणियाँ गूंथना, स्नान, भूनने या तलने का कर्म, (घोड़े आदि की) जीन या काठी कसना तथा कौसुंभ-सूत्र खींचना आदि कार्य करते हैं। उन्हें उस देश विशेष के लोगों द्वारा जानें, व्यवहारिक-शास्त्रों में यह नहीं कहा गया है, किन्तु स्त्रियाँ सौभाग्य प्राप्ति, सपत्नी का अभाव और वर के वशीकरण के लिए इन क्रियाओं को करती हैं। फिर हाथों को मिलाए हुए ही वर और वधू को नर-नारियों की गोद में बैठाकर गीत-वाद्य आदि की ध्वनि सहित दक्षिण-द्वार से प्रवेश करवाकर वेदी के बीच में लाएं। उसके बाद देश एवं कुलाचार के अनुसार काष्ठ या बेंत के आसन, या सिंहासन, अथवा अधोमुखी शरमय खारी के ऊपर वधू एवं वर को पूर्वाभिमुख करके बैठाएं। __ हस्तलेप एवं वेदी-कर्म हो जाने पर कुलाचार के अनुसार बिना किनारे सिले हुए वस्त्र, कौसुंभ-वस्त्र या स्वाभाविक वस्त्र वधू और वर को पहनाएं। फिर गृहस्थ गुरू उत्तराभिमुख होकर, मृगछाल के आसन पर बैठे तथा शमी, पीपल, कपित्थ, कुटज, बेल या आंवलो की समिधाओं से अग्नि को प्रज्वलित करके मन्त्रोच्चारण के साथ घी, शहद, तिल, जौ तथा विभिन्न प्रकार के फलों की आहुति दे। वह मंत्र इस प्रकार है - "ऊँ अर्ह ॐ अग्ने प्रसन्नः सावधानो भव, तवायमवसर, तदाकारयेन्द्रंयम, नैऋति वरूणं वायुं कुबेरमीशानं नागान् ब्रह्माणं लोकपालान्, ग्रहांश्च सूर्य शशि कुज सौम्य वृहस्पति कवि शनि राहु केतुन्सुरांश्चासुरनाग सुपर्णविद्युदग्निद्वीपोदधिदिककुमारान् भवनपतीन् पिशाय भूतयक्ष राक्षस किन्नर किंपुरूष महोरगगन्धर्वान् व्यन्तरान् चन्दाग्रह नक्षत्र तारकान् ज्योतिष्कान् सौधर्मेशान श्रीवत्साखंडलपद्मोत्तर ब्रह्मोत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001690
Book TitleJain Gruhastha ki Shodashsanskar Vidhi
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2005
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Culture, & Vidhi
File Size12 MB
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