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________________ जैन तत्त्वमीमांसा की विकासयात्रा : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में : ४९ अस्तिकाय और द्रव्य की अवधारणाओं का समन्वय करते हुए काल को अनस्तिकाय द्रव्य के रूप में स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार कर लिया गया। __ अस्तिकाय की अवधारणा जैनों की मौलिक अवधारणा है। किसी अन्य दर्शन में इसकी उपस्थिति के संकेत नहीं मिलते। मेरी दृष्टि में प्राचीन काल में अस्तिकाय का तात्पर्य मात्र अस्तित्व रखने वाली सत्ता था, किन्तु आगे चलकर जब अस्तिकाय और अनस्तिकाय ऐसे दो प्रकार के द्रव्य माने गये तो अस्तिकाय का तात्पर्य आकाश में विस्तार युक्त द्रव्य से माना गया। पारम्परिक भाषा में अस्तिकाय को बहु-प्रदेशी द्रव्य भी कहा गया है, जिसका तात्पर्य यही हैं कि जो द्रव्य आकाश क्षेत्र में विस्तरित है, वही 'अस्तिकाय' हैं। पंचास्तिकाय जैन दर्शन में वर्तमान काल में जो षद्रव्य की अवधारणा है, उसका विकास इसी पंचास्तिकाय की अवधारणा से ही हुआ हैं। पंचास्तिकायों में काल को जोड़कर लगभग प्रथम-द्वितीय शती में षद्रव्यों की अवधारणा निर्मित हुई है। जहाँ तक पंचास्तिकाय की अवधारणा का प्रश्न है वह निश्चित ही प्राचीन है, क्योंकि उसका प्राचीनतम उल्लेख हमें 'इसिभासियाई' के पार्श्व नामक अध्ययन में मिलता है। ऋषिभाषित की प्राचीनता निर्विवाद है। पं. दलसुखभाई का यह कथन कि "पंचास्तिकाय की अवधारणा परवर्ती काल में बनी है" - उतना ही सत्य है कि महावीर की परम्परा में आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचनाकाल तक इस अवधारणा का उल्लेख नहीं है, क्योंकि मूल में यह अवधारणा पापित्यों की थी। जब पार्श्व के अनुयायियों को महावीर के संघ में समाहित कर लिया गया, तो उसके साथ ही पार्श्व की अनेक मान्यताएँ भी महावीर की परम्परा में स्वीकृत की गयीं। इसी क्रम में यह अवधारणा महावीर की परम्परा में स्पष्ट रूप से मान्य हुई। भगवतीसूत्र में सर्वप्रथम यह कहा गया कि लोक, धर्म, अधर्म, आकाश, अजीव और पुद्गल रूप हैं। ऋषिभाषित में तो मात्र पाँच अस्तिकाय हैं - इतना ही निर्देश है, उनके नामों का भी उल्लेख नहीं है। चाहे ऋषिभाषित के काल में पंचास्तिकायों के नाम निर्धारित हो भी चुके हों, किन्तु फिर भी उनके स्वरूप के विषय में वहाँ कोई भी सूचना नहीं मिलती। धर्मअधर्म आदि पंच अस्तिकायों का जो अर्थ आज है, वह कालक्रम में विकसित हुआ हैं। भगवतीसूत्र में ही हमें ऐसे दो सन्दर्भ मिलते हैं जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीनकाल में धर्म अस्तिकाय और अधर्म अस्तिकाय का अर्थ गति और स्थिति में सहायक द्रव्य नहीं था। भगवतीसूत्र के ही बीसवें शतक में धर्मास्तिकाय के जो पर्यायवाची दिये गये हैं, उनमें अट्ठारह पाप स्थानों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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