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________________ ३६ वासुकुण्ड ही अधिक प्रामाणिक लगता है। जैन समाज को उस स्थान के सम्यक् विकास हेतु प्रयत्न करना चाहिए। संदर्भ : १. समणे भगवं महावीरे नाए, नायपुत्ते, नायकुलचंदे, विदेहे, विदेहदिन्ने, विदेहजच्चे विदेह सूमाले तीसं वासाई विदेहंसि कट्टु - कल्पसूत्र ११० (प्राकृत भारती संस्करण पृ. १६० ). २. वही पृ. १६०. ३. णायसंडवणे उज्जागे जेणेव असोकवरपायवे कल्पसूत्र ११३ ( प्राकृत भारती संस्करण पृ. १७०)एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी अणुत्तरदसी अणुत्तरणाणदंसणघरे । अरहा - णायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए || सूत्रकृतांग १/२/३/२२. ४. देखें - कल्पसूत्र ५८, ६७, ६९ (प्रा.भा.सं. पृ. ९६, ११४ आदि). ५. देखें - बुद्धकालीन भारतीय भूगोल - भरत सिंह पृ. ३१३. ६. कल्पसूत्र ११९ (प्राकृत भारती संस्करण पृ. १८४ ). ज्ञातव्य है आचारांग सूत्र में भी दीक्षा ग्रहण करते समय महावीर यह निर्णय लेते हैं। कि मैं सबके प्रति क्षमाभाव रखूंगा (सम्मं सहिस्सामि इवमिस्सामि). ८. आचारांग १ / १७४ ५/५५, ६ / ३०. ९. वही, १/३७, ६८. ७. Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001689
Book TitleSagar Jain Vidya Bharti Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2006
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size12 MB
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